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⌀ |
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main-dhuundtaa-huun-jise-vo-jahaan-nahiin-miltaa-kaifi-azmi-ghazals |
मैं ढूँडता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता
नई ज़मीन नया आसमाँ नहीं मिलता
नई ज़मीन नया आसमाँ भी मिल जाए
नए बशर का कहीं कुछ निशाँ नहीं मिलता
वो तेग़ मिल गई जिस से हुआ है क़त्ल मिरा
किसी के हाथ का उस पर निशाँ नहीं मिलता
वो मेरा गाँव है वो मेरे गाँव के चूल्हे
कि जिन में शोले तो शोले धुआँ नहीं मिलता
जो इक ख़ुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यूँ
यहाँ तो कोई मिरा हम-ज़बाँ नहीं मिलता
खड़ा हूँ कब से मैं चेहरों के एक जंगल में
तुम्हारे चेहरे का कुछ भी यहाँ नहीं मिलता |
haath-aa-kar-lagaa-gayaa-koii-kaifi-azmi-ghazals |
हाथ आ कर लगा गया कोई
मेरा छप्पर उठा गया कोई
लग गया इक मशीन में मैं भी
शहर में ले के आ गया कोई
मैं खड़ा था कि पीठ पर मेरी
इश्तिहार इक लगा गया कोई
ये सदी धूप को तरसती है
जैसे सूरज को खा गया कोई
ऐसी महँगाई है कि चेहरा भी
बेच के अपना खा गया कोई
अब वो अरमान हैं न वो सपने
सब कबूतर उड़ा गया कोई
वो गए जब से ऐसा लगता है
छोटा मोटा ख़ुदा गया कोई
मेरा बचपन भी साथ ले आया
गाँव से जब भी आ गया कोई |
kyaa-jaane-kis-kii-pyaas-bujhaane-kidhar-gaiin-kaifi-azmi-ghazals |
क्या जाने किस की प्यास बुझाने किधर गईं
इस सर पे झूम के जो घटाएँ गुज़र गईं
दीवाना पूछता है ये लहरों से बार बार
कुछ बस्तियाँ यहाँ थीं बताओ किधर गईं
अब जिस तरफ़ से चाहे गुज़र जाए कारवाँ
वीरानियाँ तो सब मिरे दिल में उतर गईं
पैमाना टूटने का कोई ग़म नहीं मुझे
ग़म है तो ये कि चाँदनी रातें बिखर गईं
पाया भी उन को खो भी दिया चुप भी हो रहे
इक मुख़्तसर सी रात में सदियाँ गुज़र गईं |
shor-yuunhii-na-parindon-ne-machaayaa-hogaa-kaifi-azmi-ghazals |
शोर यूँही न परिंदों ने मचाया होगा
कोई जंगल की तरफ़ शहर से आया होगा
पेड़ के काटने वालों को ये मालूम तो था
जिस्म जल जाएँगे जब सर पे न साया होगा
बानी-ए-जश्न-ए-बहाराँ ने ये सोचा भी नहीं
किस ने काँटों को लहू अपना पिलाया होगा
बिजली के तार पे बैठा हुआ हँसता पंछी
सोचता है कि वो जंगल तो पराया होगा
अपने जंगल से जो घबरा के उड़े थे प्यासे
हर सराब उन को समुंदर नज़र आया होगा |
khaar-o-khas-to-uthen-raasta-to-chale-kaifi-azmi-ghazals |
ख़ार-ओ-ख़स तो उठें रास्ता तो चले
मैं अगर थक गया क़ाफ़िला तो चले
चाँद सूरज बुज़ुर्गों के नक़्श-ए-क़दम
ख़ैर बुझने दो उन को हवा तो चले
हाकिम-ए-शहर ये भी कोई शहर है
मस्जिदें बंद हैं मय-कदा तो चले
उस को मज़हब कहो या सियासत कहो
ख़ुद-कुशी का हुनर तुम सिखा तो चले
इतनी लाशें मैं कैसे उठा पाऊँगा
आप ईंटों की हुरमत बचा तो चले
बेलचे लाओ खोलो ज़मीं की तहें
मैं कहाँ दफ़्न हूँ कुछ पता तो चले |
itnaa-to-zindagii-men-kisii-ke-khalal-pade-kaifi-azmi-ghazals |
इतना तो ज़िंदगी में किसी के ख़लल पड़े
हँसने से हो सुकून न रोने से कल पड़े
जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी पी के गर्म अश्क
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े
इक तुम कि तुम को फ़िक्र-ए-नशेब-ओ-फ़राज़ है
इक हम कि चल पड़े तो बहर-हाल चल पड़े
साक़ी सभी को है ग़म-ए-तिश्ना-लबी मगर
मय है उसी की नाम पे जिस के उबल पड़े
मुद्दत के बा'द उस ने जो की लुत्फ़ की निगाह
जी ख़ुश तो हो गया मगर आँसू निकल पड़े |
tum-itnaa-jo-muskuraa-rahe-ho-kaifi-azmi-ghazals |
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो
आँखों में नमी हँसी लबों पर
क्या हाल है क्या दिखा रहे हो
बन जाएँगे ज़हर पीते पीते
ये अश्क जो पीते जा रहे हो
जिन ज़ख़्मों को वक़्त भर चला है
तुम क्यूँ उन्हें छेड़े जा रहे हो
रेखाओं का खेल है मुक़द्दर
रेखाओं से मात खा रहे हो |
laaii-phir-ek-lagzish-e-mastaana-tere-shahr-men-kaifi-azmi-ghazals |
लाई फिर इक लग़्ज़िश-ए-मस्ताना तेरे शहर में
फिर बनेंगी मस्जिदें मय-ख़ाना तेरे शहर में
आज फिर टूटेंगी तेरे घर की नाज़ुक खिड़कियाँ
आज फिर देखा गया दीवाना तेरे शहर में
जुर्म है तेरी गली से सर झुका कर लौटना
कुफ़्र है पथराव से घबराना तेरे शहर में
शाह-नामे लिक्खे हैं खंडरात की हर ईंट पर
हर जगह है दफ़्न इक अफ़्साना तेरे शहर में
कुछ कनीज़ें जो हरीम-ए-नाज़ में हैं बारयाब
माँगती हैं जान ओ दिल नज़राना तेरे शहर में
नंगी सड़कों पर भटक कर देख जब मरती है रात
रेंगता है हर तरफ़ वीराना तेरे शहर में |
vo-bhii-saraahne-lage-arbaab-e-fan-ke-baad-kaifi-azmi-ghazals |
वो भी सराहने लगे अर्बाब-ए-फ़न के बा'द
दाद-ए-सुख़न मिली मुझे तर्क-ए-सुख़न के बा'द
दीवाना-वार चाँद से आगे निकल गए
ठहरा न दिल कहीं भी तिरी अंजुमन के बा'द
होंटों को सी के देखिए पछ्ताइएगा आप
हंगामे जाग उठते हैं अक्सर घुटन के बा'द
ग़ुर्बत की ठंडी छाँव में याद आई उस की धूप
क़द्र-ए-वतन हुई हमें तर्क-ए-वतन के बा'द
एलान-ए-हक़ में ख़तरा-ए-दार-ओ-रसन तो है
लेकिन सवाल ये है कि दार-ओ-रसन के बा'द
इंसाँ की ख़्वाहिशों की कोई इंतिहा नहीं
दो गज़ ज़मीं भी चाहिए दो गज़ कफ़न के बा'द |
jhukii-jhukii-sii-nazar-be-qaraar-hai-ki-nahiin-kaifi-azmi-ghazals |
झुकी झुकी सी नज़र बे-क़रार है कि नहीं
दबा दबा सा सही दिल में प्यार है कि नहीं
तू अपने दिल की जवाँ धड़कनों को गिन के बता
मिरी तरह तिरा दिल बे-क़रार है कि नहीं
वो पल कि जिस में मोहब्बत जवान होती है
उस एक पल का तुझे इंतिज़ार है कि नहीं
तिरी उमीद पे ठुकरा रहा हूँ दुनिया को
तुझे भी अपने पे ये ए'तिबार है कि नहीं |
sunaa-karo-mirii-jaan-in-se-un-se-afsaane-kaifi-azmi-ghazals |
सुना करो मिरी जाँ इन से उन से अफ़्साने
सब अजनबी हैं यहाँ कौन किस को पहचाने
यहाँ से जल्द गुज़र जाओ क़ाफ़िले वालो
हैं मेरी प्यास के फूँके हुए ये वीराने
मिरे जुनून-ए-परस्तिश से तंग आ गए लोग
सुना है बंद किए जा रहे हैं बुत-ख़ाने
जहाँ से पिछले पहर कोई तिश्ना-काम उठा
वहीं पे तोड़े हैं यारों ने आज पैमाने
बहार आए तो मेरा सलाम कह देना
मुझे तो आज तलब कर लिया है सहरा ने
हुआ है हुक्म कि 'कैफ़ी' को संगसार करो
मसीह बैठे हैं छुप के कहाँ ख़ुदा जाने |
kii-hai-koii-hasiin-khataa-har-khataa-ke-saath-kaifi-azmi-ghazals |
की है कोई हसीन ख़ता हर ख़ता के साथ
थोड़ा सा प्यार भी मुझे दे दो सज़ा के साथ
गर डूबना ही अपना मुक़द्दर है तो सुनो
डूबेंगे हम ज़रूर मगर नाख़ुदा के साथ
मंज़िल से वो भी दूर था और हम भी दूर थे
हम ने भी धूल उड़ाई बहुत रहनुमा के साथ
रक़्स-ए-सबा के जश्न में हम तुम भी नाचते
ऐ काश तुम भी आ गए होते सबा के साथ
इक्कीसवीं सदी की तरफ़ हम चले तो हैं
फ़ित्ने भी जाग उट्ठे हैं आवाज़-ए-पा के साथ
ऐसा लगा ग़रीबी की रेखा से हूँ बुलंद
पूछा किसी ने हाल कुछ ऐसी अदा के साथ |
kahiin-se-laut-ke-ham-ladkhadaae-hain-kyaa-kyaa-kaifi-azmi-ghazals |
कहीं से लौट के हम लड़खड़ाए हैं क्या क्या
सितारे ज़ेर-ए-क़दम रात आए हैं क्या क्या
नशेब-ए-हस्ती से अफ़्सोस हम उभर न सके
फ़राज़-ए-दार से पैग़ाम आए हैं क्या क्या
जब उस ने हार के ख़ंजर ज़मीं पे फेंक दिया
तमाम ज़ख़्म-ए-जिगर मुस्कुराए हैं क्या क्या
छटा जहाँ से उस आवाज़ का घना बादल
वहीं से धूप ने तलवे जलाए हैं क्या क्या
उठा के सर मुझे इतना तो देख लेने दे
कि क़त्ल-गाह में दीवाने आए हैं क्या क्या
कहीं अँधेरे से मानूस हो न जाए अदब
चराग़ तेज़ हवा ने बुझाए हैं क्या क्या |
patthar-ke-khudaa-vahaan-bhii-paae-kaifi-azmi-ghazals |
पत्थर के ख़ुदा वहाँ भी पाए
हम चाँद से आज लौट आए
दीवारें तो हर तरफ़ खड़ी हैं
क्या हो गए मेहरबान साए
जंगल की हवाएँ आ रही हैं
काग़ज़ का ये शहर उड़ न जाए
लैला ने नया जनम लिया है
है क़ैस कोई जो दिल लगाए
है आज ज़मीं का ग़ुस्ल-ए-सेह्हत
जिस दिल में हो जितना ख़ून लाए
सहरा सहरा लहू के खे़मे
फिर प्यासे लब-ए-फ़ुरात आए |
jo-vo-mire-na-rahe-main-bhii-kab-kisii-kaa-rahaa-kaifi-azmi-ghazals-1 |
जो वो मिरे न रहे मैं भी कब किसी का रहा
बिछड़ के उन से सलीक़ा न ज़िंदगी का रहा
लबों से उड़ गया जुगनू की तरह नाम उस का
सहारा अब मिरे घर में न रौशनी का रहा
गुज़रने को तो हज़ारों ही क़ाफ़िले गुज़रे
ज़मीं पे नक़्श-ए-क़दम बस किसी किसी का रहा |
aaj-sochaa-to-aansuu-bhar-aae-kaifi-azmi-ghazals-1 |
आज सोचा तो आँसू भर आए
मुद्दतें हो गईं मुस्कुराए
हर क़दम पर उधर मुड़ के देखा
उन की महफ़िल से हम उठ तो आए
रह गई ज़िंदगी दर्द बन के
दर्द दिल में छुपाए छुपाए
दिल की नाज़ुक रगें टूटती हैं
याद इतना भी कोई न आए |
milne-kii-tarah-mujh-se-vo-pal-bhar-nahiin-miltaa-naseer-turabi-ghazals |
मिलने की तरह मुझ से वो पल भर नहीं मिलता
दिल उस से मिला जिस से मुक़द्दर नहीं मिलता
ये राह-ए-तमन्ना है यहाँ देख के चलना
इस राह में सर मिलते हैं पत्थर नहीं मिलता
हमरंगी-ए-मौसम के तलबगार न होते
साया भी तो क़ामत के बराबर नहीं मिलता
कहने को ग़म-ए-हिज्र बड़ा दुश्मन-ए-जाँ है
पर दोस्त भी इस दोस्त से बेहतर नहीं मिलता
कुछ रोज़ 'नसीर' आओ चलो घर में रहा जाए
लोगों को ये शिकवा है कि घर पर नहीं मिलता |
vo-ham-safar-thaa-magar-us-se-ham-navaaii-na-thii-naseer-turabi-ghazals |
वो हम-सफ़र था मगर उस से हम-नवाई न थी
कि धूप छाँव का आलम रहा जुदाई न थी
न अपना रंज न औरों का दुख न तेरा मलाल
शब-ए-फ़िराक़ कभी हम ने यूँ गँवाई न थी
मोहब्बतों का सफ़र इस तरह भी गुज़रा था
शिकस्ता-दिल थे मुसाफ़िर शिकस्ता-पाई न थी
अदावतें थीं, तग़ाफ़ुल था, रंजिशें थीं बहुत
बिछड़ने वाले में सब कुछ था, बेवफ़ाई न थी
बिछड़ते वक़्त उन आँखों में थी हमारी ग़ज़ल
ग़ज़ल भी वो जो किसी को अभी सुनाई न थी
किसे पुकार रहा था वो डूबता हुआ दिन
सदा तो आई थी लेकिन कोई दुहाई न थी
कभी ये हाल कि दोनों में यक-दिली थी बहुत
कभी ये मरहला जैसे कि आश्नाई न थी
अजीब होती है राह-ए-सुख़न भी देख 'नसीर'
वहाँ भी आ गए आख़िर, जहाँ रसाई न थी |
is-kadii-dhuup-men-saaya-kar-ke-naseer-turabi-ghazals |
इस कड़ी धूप में साया कर के
तू कहाँ है मुझे तन्हा कर के
मैं तो अर्ज़ां था ख़ुदा की मानिंद
कौन गुज़रा मिरा सौदा कर के
तीरगी टूट पड़ी है मुझ पर
मैं पशीमाँ हूँ उजाला कर के
ले गया छीन के आँखें मेरी
मुझ से क्यूँ वादा-ए-फ़र्दा कर के
लौ इरादों की बढ़ा दी शब ने
दिन गया जब मुझे पसपा कर के
काश ये आईना-ए-हिज्र-ओ-विसाल
टूट जाए मुझे अंधा कर के
हर तरफ़ सच की दुहाई है 'नसीर'
शेर लिखते रहो सच्चा कर के |
tujhe-kyaa-khabar-mire-be-khabar-miraa-silsila-koii-aur-hai-naseer-turabi-ghazals-3 |
तुझे क्या ख़बर मिरे बे-ख़बर मिरा सिलसिला कोई और है
जो मुझी को मुझ से बहम करे वो गुरेज़-पा कोई और है
मिरे मौसमों के भी तौर थे मिरे बर्ग-ओ-बार ही और थे
मगर अब रविश है अलग कोई मगर अब हवा कोई और है
यही शहर शहर-ए-क़रार है तो दिल-ए-शिकस्ता की ख़ैर हो
मिरी आस है किसी और से मुझे पूछता कोई और है
ये वो माजरा-ए-फ़िराक़ है जो मोहब्बतों से न खुल सका
कि मोहब्बतों ही के दरमियाँ सबब-ए-जफ़ा कोई और है
हैं मोहब्बतों की अमानतें यही हिजरतें यही क़ुर्बतें
दिए बाम-ओ-दर किसी और ने तो रहा बसा कोई और है
ये फ़ज़ा के रंग खुले खुले इसी पेश-ओ-पस के हैं सिलसिले
अभी ख़ुश-नवा कोई और था अभी पर-कुशा कोई और है
दिल-ए-ज़ूद-रंज न कर गिला किसी गर्म ओ सर्द रक़ीब का
रुख़-ए-ना-सज़ा तो है रू-ब-रू पस-ए-ना-सज़ा कोई और है
बहुत आए हमदम ओ चारा-गर जो नुमूद-ओ-नाम के हो गए
जो ज़वाल-ए-ग़म का भी ग़म करे वो ख़ुश-आश्ना कोई और है
ये 'नसीर' शाम-ए-सुपुर्दगी की उदास उदास सी रौशनी
ब-कनार-ए-गुल ज़रा देखना ये तुम्ही हो या कोई और है |
marham-e-vaqt-na-ejaaz-e-masiihaaii-hai-naseer-turabi-ghazals |
मरहम-ए-वक़्त न एजाज़-ए-मसीहाई है
ज़िंदगी रोज़ नए ज़ख़्म की गहराई है
फिर मिरे घर की फ़ज़ाओं में हुआ सन्नाटा
फिर दर-ओ-बाम से अंदेशा-ए-गोयाई है
तुझ से बिछड़ूँ तो कोई फूल न महके मुझ में
देख क्या कर्ब है क्या ज़ात की सच्चाई है
तेरा मंशा तिरे लहजे की धनक में देखा
तिरी आवाज़ भी शायद तिरी अंगड़ाई है
कुछ अजब गर्दिश-ए-पर्कार सफ़र रखता हूँ
दो-क़दम मुझ से भी आगे मिरी रुस्वाई है
कुछ तो ये है कि मिरी राह जुदा है तुझ से
और कुछ क़र्ज़ भी मुझ पर तिरी तन्हाई है
किस लिए मुझ से गुरेज़ाँ है मिरे सामने तू
क्या तिरी राह में हाइल मिरी बीनाई है
वो सितारे जो चमकते हैं तिरे आँगन में
उन सितारों से तो अपनी भी शनासाई है
जिस को इक उम्र ग़ज़ल से किया मंसूब 'नसीर'
उस को परखा तो खुला क़ाफ़िया-पैमाई है |
diyaa-saa-dil-ke-kharaabe-men-jal-rahaa-hai-miyaan-naseer-turabi-ghazals |
दिया सा दिल के ख़राबे में जल रहा है मियाँ
दिए के गिर्द कोई अक्स चल रहा है मियाँ
ये रूह रक़्स-ए-चराग़ाँ है अपने हल्क़े में
ये जिस्म साया है और साया ढल रहा मियाँ
ये आँख पर्दा है इक गर्दिश-ए-तहय्युर का
ये दिल नहीं है बगूला उछल रहा है मियाँ
कभी किसी का गुज़रना कभी ठहर जाना
मिरे सुकूत में क्या क्या ख़लल रहा है मियाँ
किसी की राह में अफ़्लाक ज़ेर-ए-पा होते
यहाँ तो पाँव से सहरा निकल रहा है मियाँ
हुजूम-ए-शोख़ में ये दिल ही बे-ग़रज़ निकला
चलो कोई तो हरीफ़ाना चल रहा है मियाँ
तुझे अभी से पड़ी है कि फ़ैसला हो जाए
न जाने कब से यहाँ वक़्त टल रहा है मियाँ
तबीअतों ही के मिलने से था मज़ा बाक़ी
सो वो मज़ा भी कहाँ आज-कल रहा है मियाँ
ग़मों की फ़स्ल में जिस ग़म को राएगाँ समझें
ख़ुशी तो ये है कि वो ग़म भी फल रहा है मियाँ
लिखा 'नसीर' ने हर रंग में सफ़ेद-ओ-सियाह
मगर जो हर्फ़ लहू में मचल रहा है मियाँ |
sukuut-e-shaam-se-ghabraa-na-jaae-aakhir-tuu-naseer-turabi-ghazals |
सुकूत-ए-शाम से घबरा न जाए आख़िर तू
मिरे दयार से गुज़री जो ऐ किरन फिर तू
लिबास-ए-जाँ में नहीं शो'लगी का रंग मगर
झुलस रहा है मिरे साथ क्यूँ ब-ज़ाहिर तू
वफ़ा-ए-वा'दा-ओ-पैमाँ का ए'तिबार भी क्या
कि मैं तो साहब-ए-ईमाँ हूँ और मुंकिर तू
मिरे वजूद में इक बे-ज़बाँ समुंदर है
उतर के देख सफ़ीने से मेरी ख़ातिर तू
मैं शाख़-ए-सब्ज़ नहीं महरम-ए-सबा भी नहीं
मिरे फ़रेब में क्यूँ आ गया है ताइर तू
इसी उम्मीद पे जलते हैं रास्तों में चराग़
कभी तो लौट के आएगा ऐ मुसाफ़िर तू |
main-bhii-ai-kaash-kabhii-mauj-e-sabaa-ho-jaauun-naseer-turabi-ghazals |
मैं भी ऐ काश कभी मौज-ए-सबा हो जाऊँ
इस तवक़्क़ो पे कि ख़ुद से भी जुदा हो जाऊँ
अब्र उट्ठे तो सिमट जाऊँ तिरी आँखों में
धूप निकले तो तिरे सर की रिदा हो जाऊँ
आज की रात उजाले मिरे हम-साया हैं
आज की रात जो सो लूँ तो नया हो जाऊँ
अब यही सोच लिया दिल में कि मंज़िल के बग़ैर
घर पलट आऊँ तो मैं आबला-पा हो जाऊँ
फूल की तरह महकता हूँ तिरी याद के साथ
ये अलग बात कि मैं तुझ से ख़फ़ा हो जाऊँ
जिस के कूचे में बरसते रहे पत्थर मुझ पर
उस के हाथों के लिए रंग-ए-हिना हो जाऊँ
आरज़ू ये है कि तक़्दीस-ए-हुनर की ख़ातिर
तेरे होंटों पे रहूँ हम्द-ओ-सना हो जाऊँ
मरहला अपनी परस्तिश का हो दरपेश तो मैं
अपने ही सामने माइल-ब-दुआ हो जाऊँ
तीशा-ए-वक़्त बताए कि तआरुफ़ के लिए
किन पहाड़ों की बुलंदी पे खड़ा हो जाऊँ
हाए वो लोग कि मैं जिन का पुजारी हूँ 'नसीर'
हाए वो लोग कि मैं जिन का ख़ुदा हो जाऊँ |
rache-base-hue-lamhon-se-jab-hisaab-huaa-naseer-turabi-ghazals |
रचे-बसे हुए लम्हों से जब हिसाब हुआ
गए दिनों की रुतों का ज़ियाँ सवाब हुआ
गुज़र गया तो पस-ए-मौज बे-कनारी थी
ठहर गया तो वो दरिया मुझे सराब हुआ
सुपुर्दगी के तक़ाज़े कहाँ कहाँ से पढ़ूँ
हुनर के बाब में पैकर तिरा किताब हुआ
हर आरज़ू मिरी आँखों की रौशनी ठहरी
चराग़ सोच में गुम हैं ये क्या अज़ाब हुआ
कुछ अजनबी से लगे आश्ना दरीचे भी
किरन किरन जो उजालों का एहतिसाब हुआ
वो यख़-मिज़ाज रहा फ़ासलों के रिश्तों से
मगर गले से लगाया तो आब आब हुआ
वो पेड़ जिस के तले रूह गुनगुनाती थी
उसी की छाँव से अब मुझ को इज्तिनाब हुआ
इन आँधियों में किसे मोहलत-ए-क़याम यहाँ
कि एक ख़ेमा-ए-जाँ था सो बे-तनाब हुआ
सलीब-ए-संग हो या पैरहन के रंग 'नसीर'
हमारे नाम से क्या क्या न इंतिसाब हुआ |
dard-kii-dhuup-se-chehre-ko-nikhar-jaanaa-thaa-naseer-turabi-ghazals |
दर्द की धूप से चेहरे को निखर जाना था
आइना देखने वाले तुझे मर जाना था
राह में ऐसे नुक़ूश-ए-कफ़-ए-पा भी आए
मैं ने दानिस्ता जिन्हें गर्द-ए-सफ़र जाना था
वहम-ओ-इदराक के हर मोड़ पे सोचा मैं ने
तू कहाँ है मिरे हमराह अगर जाना था
आगही ज़ख़्म-ए-नज़ारा न बनी थी जब तक
मैं ने हर शख़्स को महबूब-ए-नज़र जाना था
क़ुर्बतें रेत की दीवार हैं गिर सकती हैं
मुझ को ख़ुद अपने ही साए में ठहर जाना था
तू कि वो तेज़ हवा जिस की तमन्ना बे-सूद
मैं कि वो ख़ाक जिसे ख़ुद ही बिखर जाना था
आँख वीरान सही फिर भी अँधेरों को 'नसीर'
रौशनी बन के मिरे दिल में उतर जाना था |
ham-rahii-kii-baat-mat-kar-imtihaan-ho-jaaegaa-naseer-turabi-ghazals |
हम-रही की बात मत कर इम्तिहाँ हो जाएगा
हम सुबुक हो जाएँगे तुझ को गिराँ हो जाएगा
जब बहार आ कर गुज़र जाएगी ऐ सर्व-ए-बहार
एक रंग अपना भी पैवंद-ए-ख़िज़ाँ हो जाएगा
साअत-ए-तर्क-ए-तअल्लुक़ भी क़रीब आ ही गई
क्या ये अपना सब तअल्लुक़ राएगाँ हो जाएगा
ये हवा सारे चराग़ों को उड़ा ले जाएगी
रात ढलने तक यहाँ सब कुछ धुआँ हो जाएगा
शाख़-ए-दिल फिर से हरी होने लगी देखो 'नसीर'
ऐसा लगता है किसी का आशियाँ हो जाएगा |
misl-e-sahraa-hai-rifaaqat-kaa-chaman-bhii-ab-ke-naseer-turabi-ghazals |
मिस्ल-ए-सहरा है रिफ़ाक़त का चमन भी अब के
जल बुझा अपने ही शो'लों में बदन भी अब के
ख़ार-ओ-ख़स हूँ तो शरर-ख़ेज़ियाँ देखूँ फिर से
आँख ले आई है इक ऐसी किरन भी अब के
हम तो वो फूल जो शाख़ों पे ये सोचें पहरों
क्यूँ सबा भूल गई अपना चलन भी अब के
मंज़िलों तक नज़र आता है शिकस्तों का ग़ुबार
साथ देती नहीं ऐसे में थकन भी अब के
मुंसलिक एक ही रिश्ते में न हो जाए कहीं
तिरे माथे तिरे बिस्तर की शिकन भी अब के
बे-गुनाही के लिबादे को उतारो भी 'नसीर'
रास आ जाए अगर जुर्म-ए-सुख़न भी अब के |
sabaa-kaa-narm-saa-jhonkaa-bhii-taaziyaana-huaa-naseer-turabi-ghazals-1 |
सबा का नर्म सा झोंका भी ताज़ियाना हुआ
ये वार मुझ पे हुआ भी तो ग़ाएबाना हुआ
उसी ने मुझ पे उठाए हैं संग जिस के लिए
मैं पाश पाश हुआ घर निगार-ख़ाना हुआ
झुलस रहा था बदन गर्मी-ए-नफ़स से मगर
तिरे ख़याल का ख़ुर्शीद शामियाना हुआ
ख़ुद अपने हिज्र की ख़्वाहिश मुझे अज़ीज़ रही
ये तेरे वस्ल का क़िस्सा तो इक बहाना हुआ
ख़ुदा की सर्द-मिज़ाजी समा गई मुझ में
मिरी तलाश का सौदा पयम्बराना हुआ
मैं इक शजर की तरह रह-गुज़र में ठहरा हूँ
थकन उतार के तू किस तरफ़ रवाना हुआ
वो शख़्स जिस के लिए शे'र कह रहा हूँ 'नसीर'
ग़ज़ल सुनाए हुए उस को इक ज़माना हुआ |
koii-aavaaz-na-aahat-na-khayaal-aise-men-naseer-turabi-ghazals |
कोई आवाज़ न आहट न ख़याल ऐसे में
रात महकी है मगर जी है निढाल ऐसे में
मेरे अतराफ़ तो गिरती हुई दीवारें हैं
साया-ए-उम्र-ए-रवाँ मुझ को सँभाल ऐसे में
जब भी चढ़ते हुए दरिया में सफ़ीना उतरा
याद आया तिरे लहजे का कमाल ऐसे में
आँख खुलती है तो सब ख़्वाब बिखर जाते हैं
सोचता हूँ कि बिछा दूँ कोई जाल ऐसे में
मुद्दतों बा'द अगर सामने आए हम तुम
धुँदले धुँदले से मिलेंगे ख़द-ओ-ख़ाल ऐसे में
हिज्र के फूल में है दर्द की बासी ख़ुश्बू
मौसम-ए-वस्ल कोई ताज़ा मलाल ऐसे में |
dekh-lete-hain-ab-us-baam-ko-aate-jaate-naseer-turabi-ghazals |
देख लेते हैं अब उस बाम को आते जाते
ये भी आज़ार चला जाएगा जाते जाते
दिल के सब नक़्श थे हाथों की लकीरों जैसे
नक़्श-ए-पा होते तो मुमकिन था मिटाते जाते
थी कभी राह जो हम-राह गुज़रने वाली
अब हज़र होता है उस राह से आते जाते
शहर-ए-बे-मेहर! कभी हम को भी मोहलत देता
इक दिया हम भी किसी रुख़ से जलाते जाते
पारा-ए-अब्र-ए-गुरेज़ाँ थे कि मौसम अपने
दूर भी रहते मगर पास भी आते जाते
हर घड़ी एक जुदा ग़म है जुदाई उस की
ग़म की मीआद भी वो ले गया जाते जाते
उस के कूचे में भी हो, राह से बे-राह 'नसीर'
इतने आए थे तो आवाज़ लगाते जाते |
injiil-e-raftagaan-kii-hadiison-ke-saath-huun-naseer-turabi-ghazals |
इंजील-ए-रफ़्तगाँ की हदीसों के साथ हूँ
ईसा-नफ़स हूँ और सलीबों के साथ हूँ
पाबंद-ए-रंग-ओ-नक़्श हूँ तस्वीर की तरह
मैं बे-हिजाब अपने हिजाबों के साथ हूँ
औराक़-ए-आरज़ू पे ब-उन्वान-ए-जाँ-कनी
मैं बे-निशाँ सी चंद लकीरों के साथ हूँ
शायद ये इंतिज़ार की लौ फ़ैसला करे
मैं अपने साथ हूँ कि दरीचों के साथ हूँ
तू फ़तह-मंद मेरा तराशा हुआ सनम
मैं बुत-तराश अपनी शिकस्तों के साथ हूँ
मौज-ए-सबा की ज़द पे सर-ए-रहगुज़ार-ए-शौक़
मैं भी 'नसीर' घर के चराग़ों के साथ हूँ |
ishq-e-laa-mahduud-jab-tak-rahnumaa-hotaa-nahiin-jigar-moradabadi-ghazals |
इश्क़-ए-ला-महदूद जब तक रहनुमा होता नहीं
ज़िंदगी से ज़िंदगी का हक़ अदा होता नहीं
बे-कराँ होता नहीं बे-इंतिहा होता नहीं
क़तरा जब तक बढ़ के क़ुल्ज़ुम-आश्ना होता नहीं
उस से बढ़ कर दोस्त कोई दूसरा होता नहीं
सब जुदा हो जाएँ लेकिन ग़म जुदा होता नहीं
ज़िंदगी इक हादसा है और कैसा हादसा
मौत से भी ख़त्म जिस का सिलसिला होता नहीं
कौन ये नासेह को समझाए ब-तर्ज़-ए-दिल-नशीं
इश्क़ सादिक़ हो तो ग़म भी बे-मज़ा होता नहीं
दर्द से मामूर होती जा रही है काएनात
इक दिल-ए-इंसाँ मगर दर्द-आश्ना होता नहीं
मेरे अर्ज़-ए-ग़म पे वो कहना किसी का हाए हाए
शिकवा-ए-ग़म शेवा-ए-अहल-ए-वफ़ा होता नहीं
उस मक़ाम-ए-क़ुर्ब तक अब इश्क़ पहुँचा ही जहाँ
दीदा-ओ-दिल का भी अक्सर वास्ता होता नहीं
हर क़दम के साथ मंज़िल लेकिन इस का क्या इलाज
इश्क़ ही कम-बख़्त मंज़िल-आश्ना होता नहीं
अल्लाह अल्लाह ये कमाल और इर्तिबात-ए-हुस्न-ओ-इश्क़
फ़ासले हों लाख दिल से दिल जुदा होता नहीं
क्या क़यामत है कि इस दौर-ए-तरक़्क़ी में 'जिगर'
आदमी से आदमी का हक़ अदा होता नहीं |
ab-to-ye-bhii-nahiin-rahaa-ehsaas-jigar-moradabadi-ghazals |
अब तो ये भी नहीं रहा एहसास
दर्द होता है या नहीं होता
इश्क़ जब तक न कर चुके रुस्वा
आदमी काम का नहीं होता
टूट पड़ता है दफ़अ'तन जो इश्क़
बेश-तर देर-पा नहीं होता
वो भी होता है एक वक़्त कि जब
मा-सिवा मा-सिवा नहीं होता
हाए क्या हो गया तबीअ'त को
ग़म भी राहत-फ़ज़ा नहीं होता
दिल हमारा है या तुम्हारा है
हम से ये फ़ैसला नहीं होता
जिस पे तेरी नज़र नहीं होती
उस की जानिब ख़ुदा नहीं होता
मैं कि बे-ज़ार उम्र भर के लिए
दिल कि दम-भर जुदा नहीं होता
वो हमारे क़रीब होते हैं
जब हमारा पता नहीं होता
दिल को क्या क्या सुकून होता है
जब कोई आसरा नहीं होता
हो के इक बार सामना उन से
फिर कभी सामना नहीं होता |
jo-ab-bhii-na-takliif-farmaaiyegaa-jigar-moradabadi-ghazals |
जो अब भी न तकलीफ़ फ़रमाइएगा
तो बस हाथ मलते ही रह जाइएगा
निगाहों से छुप कर कहाँ जाइएगा
जहाँ जाइएगा हमें पाइएगा
मिरा जब बुरा हाल सुन पाइएगा
ख़िरामाँ ख़िरामाँ चले आइएगा
मिटा कर हमें आप पछ्ताइएगा
कमी कोई महसूस फ़रमाइएगा
नहीं खेल नासेह जुनूँ की हक़ीक़त
समझ लीजिएगा तो समझाइएगा
हमें भी ये अब देखना है कि हम पर
कहाँ तक तवज्जोह न फ़रमाइएगा
सितम इश्क़ में आप आसाँ न समझें
तड़प जाइएगा जो तड़पाइएगा
ये दिल है इसे दिल ही बस रहने दीजे
करम कीजिएगा तो पछ्ताइएगा
कहीं चुप रही है ज़बान-ए-मोहब्बत
न फ़रमाइएगा तो फ़रमाइएगा
भुलाना हमारा मुबारक मुबारक
मगर शर्त ये है न याद आइएगा
हमें भी न अब चैन आएगा जब तक
इन आँखों में आँसू न भर लाइएगा
तिरा जज़्बा-ए-शौक़ है बे-हक़ीक़त
ज़रा फिर तो इरशाद फ़रमाइएगा
हमीं जब न होंगे तो क्या रंग-ए-महफ़िल
किसे देख कर आप शरमाइएगा
ये माना कि दे कर हमें रंज-ए-फ़ुर्क़त
मुदावा-ए-फ़ुर्क़त न फ़रमाइएगा
मोहब्बत मोहब्बत ही रहती है लेकिन
कहाँ तक तबीअत को बहलाइएगा
न होगा हमारा ही आग़ोश ख़ाली
कुछ अपना भी पहलू तही पाइएगा
जुनूँ की 'जिगर' कोई हद भी है आख़िर
कहाँ तक किसी पर सितम ढाइएगा |
kiyaa-taajjub-ki-mirii-ruuh-e-ravaan-tak-pahunche-jigar-moradabadi-ghazals |
किया तअ'ज्जुब कि मिरी रूह-ए-रवाँ तक पहुँचे
पहले कोई मिरे नग़्मों की ज़बाँ तक पहुँचे
जब हर इक शोरिश-ए-ग़म ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ तक पहुँचे
फिर ख़ुदा जाने ये हंगामा कहाँ तक पहुँचे
आँख तक दिल से न आए न ज़बाँ तक पहुँचे
बात जिस की है उसी आफ़त-ए-जाँ तक पहुँचे
तू जहाँ पर था बहुत पहले वहीं आज भी है
देख रिंदान-ए-ख़ुश-अन्फ़ास कहाँ तक पहुँचे
जो ज़माने को बुरा कहते हैं ख़ुद हैं वो बुरे
काश ये बात तिरे गोश-ए-गिराँ तक पहुँचे
बढ़ के रिंदों ने क़दम हज़रत-ए-वाइ'ज़ के लिए
गिरते पड़ते जो दर-ए-पीर-ए-मुग़ाँ तक पहुँचे
तू मिरे हाल-ए-परेशाँ पे बहुत तंज़ न कर
अपने गेसू भी ज़रा देख कहाँ तक पहुँचे
उन का जो फ़र्ज़ है वो अहल-ए-सियासत जानें
मेरा पैग़ाम मोहब्बत है जहाँ तक पहुँचे
इश्क़ की चोट दिखाने में कहीं आती है
कुछ इशारे थे कि जो लफ़्ज़-ओ-बयाँ तक पहुँचे
जल्वे बेताब थे जो पर्दा-ए-फ़ितरत में 'जिगर'
ख़ुद तड़प कर मिरी चश्म-ए-निगराँ तक पहुँचे |
vo-jo-ruuthen-yuun-manaanaa-chaahiye-jigar-moradabadi-ghazals |
वो जो रूठें यूँ मनाना चाहिए
ज़िंदगी से रूठ जाना चाहिए
हिम्मत-ए-क़ातिल बढ़ाना चाहिए
ज़ेर-ए-ख़ंजर मुस्कुराना चाहिए
ज़िंदगी है नाम जोहद ओ जंग का
मौत क्या है भूल जाना चाहिए
है इन्हीं धोकों से दिल की ज़िंदगी
जो हसीं धोका हो खाना चाहिए
लज़्ज़तें हैं दुश्मन-ए-औज-ए-कमाल
कुल्फ़तों से जी लगाना चाहिए
उन से मिलने को तो क्या कहिए 'जिगर'
ख़ुद से मिलने को ज़माना चाहिए |
allaah-agar-taufiiq-na-de-insaan-ke-bas-kaa-kaam-nahiin-jigar-moradabadi-ghazals |
अल्लाह अगर तौफ़ीक़ न दे इंसान के बस का काम नहीं
फ़ैज़ान-ए-मोहब्बत आम सही इरफ़ान-ए-मोहब्बत आम नहीं
ये तू ने कहा क्या ऐ नादाँ फ़य्याज़ी-ए-क़ुदरत आम नहीं
तू फ़िक्र ओ नज़र तो पैदा कर क्या चीज़ है जो इनआम नहीं
या-रब ये मक़ाम-ए-इश्क़ है क्या गो दीदा-ओ-दिल नाकाम नहीं
तस्कीन है और तस्कीन नहीं आराम है और आराम नहीं
क्यूँ मस्त-ए-शराब-ए-ऐश-ओ-तरब तकलीफ़-ए-तवज्जोह फ़रमाएँ
आवाज़-ए-शिकस्त-ए-दिल ही तो है आवाज़-ए-शिकस्त-ए-जाम नहीं
आना है जो बज़्म-ए-जानाँ में पिंदार-ए-ख़ुदी को तोड़ के आ
ऐ होश-ओ-ख़िरद के दीवाने याँ होश-ओ-ख़िरद का काम नहीं
ज़ाहिद ने कुछ इस अंदाज़ से पी साक़ी की निगाहें पड़ने लगीं
मय-कश यही अब तक समझे थे शाइस्ता दौर-ए-जाम नहीं
इश्क़ और गवारा ख़ुद कर ले बे-शर्त शिकस्त-ए-फ़ाश अपनी
दिल की भी कुछ उन के साज़िश है तन्हा ये नज़र का काम नहीं
सब जिस को असीरी कहते हैं वो तो है अमीरी ही लेकिन
वो कौन सी आज़ादी है यहाँ जो आप ख़ुद अपना दाम नहीं |
dil-ko-sukuun-ruuh-ko-aaraam-aa-gayaa-jigar-moradabadi-ghazals |
दिल को सुकून रूह को आराम आ गया
मौत आ गई कि दोस्त का पैग़ाम आ गया
जब कोई ज़िक्र-ए-गर्दिश-ए-अय्याम आ गया
बे-इख़्तियार लब पे तिरा नाम आ गया
ग़म में भी है सुरूर वो हंगाम आ गया
शायद कि दौर-ए-बादा-ए-गुलफ़ाम आ गया
दीवानगी हो अक़्ल हो उम्मीद हो कि यास
अपना वही है वक़्त पे जो काम आ गया
दिल के मुआमलात में नासेह शिकस्त क्या
सौ बार हुस्न पर भी ये इल्ज़ाम आ गया
सय्याद शादमाँ है मगर ये तो सोच ले
मैं आ गया कि साया तह-ए-दाम आ गया
दिल को न पूछ मारका-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ में
क्या जानिए ग़रीब कहाँ काम आ गया
ये क्या मक़ाम-ए-इश्क़ है ज़ालिम कि इन दिनों
अक्सर तिरे बग़ैर भी आराम आ गया
अहबाब मुझ से क़त-ए-तअल्लुक़ करें 'जिगर'
अब आफ़्ताब-ए-ज़ीस्त लब-ए-बाम आ गया |
sharmaa-gae-lajaa-gae-daaman-chhudaa-gae-jigar-moradabadi-ghazals |
शरमा गए लजा गए दामन छुड़ा गए
ऐ इश्क़ मर्हबा वो यहाँ तक तो आ गए
दिल पर हज़ार तरह के औहाम छा गए
ये तुम ने क्या किया मिरी दुनिया में आ गए
सब कुछ लुटा के राह-ए-मोहब्बत में अहल-ए-दिल
ख़ुश हैं कि जैसे दौलत-ए-कौनैन पा गए
सेहन-ए-चमन को अपनी बहारों पे नाज़ था
वो आ गए तो सारी बहारों पे छा गए
अक़्ल ओ जुनूँ में सब की थीं राहें जुदा जुदा
हिर-फिर के लेकिन एक ही मंज़िल पे आ गए
अब क्या करूँ मैं फ़ितरत-ए-नाकाम-ए-इश्क़ को
जितने थे हादसात मुझे रास आ गए |
ham-ko-mitaa-sake-ye-zamaane-men-dam-nahiin-jigar-moradabadi-ghazals |
हम को मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं
हम से ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं
बे-फ़ाएदा अलम नहीं बे-कार ग़म नहीं
तौफ़ीक़ दे ख़ुदा तो ये नेमत भी कम नहीं
मेरी ज़बाँ पे शिकवा-ए-अहल-ए-सितम नहीं
मुझ को जगा दिया यही एहसान कम नहीं
या रब हुजूम-ए-दर्द को दे और वुसअ'तें
दामन तो क्या अभी मिरी आँखें भी नम नहीं
शिकवा तो एक छेड़ है लेकिन हक़ीक़तन
तेरा सितम भी तेरी इनायत से कम नहीं
अब इश्क़ उस मक़ाम पे है जुस्तुजू-नवर्द
साया नहीं जहाँ कोई नक़्श-ए-क़दम नहीं
मिलता है क्यूँ मज़ा सितम-ए-रोज़गार में
तेरा करम भी ख़ुद जो शरीक-ए-सितम नहीं
मर्ग-ए-'जिगर' पे क्यूँ तिरी आँखें हैं अश्क-रेज़
इक सानेहा सही मगर इतना अहम नहीं |
aadmii-aadmii-se-miltaa-hai-jigar-moradabadi-ghazals |
आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है
भूल जाता हूँ मैं सितम उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है
आज क्या बात है कि फूलों का
रंग तेरी हँसी से मिलता है
सिलसिला फ़ित्ना-ए-क़यामत का
तेरी ख़ुश-क़ामती से मिलता है
मिल के भी जो कभी नहीं मिलता
टूट कर दिल उसी से मिलता है
कारोबार-ए-जहाँ सँवरते हैं
होश जब बे-ख़ुदी से मिलता है
रूह को भी मज़ा मोहब्बत का
दिल की हम-साएगी से मिलता है |
mohabbat-men-ye-kyaa-maqaam-aa-rahe-hain-jigar-moradabadi-ghazals |
मोहब्बत में ये क्या मक़ाम आ रहे हैं
कि मंज़िल पे हैं और चले जा रहे हैं
ये कह कह के हम दिल को बहला रहे हैं
वो अब चल चुके हैं वो अब आ रहे हैं
वो अज़-ख़ुद ही नादिम हुए जा रहे हैं
ख़ुदा जाने क्या क्या ख़याल आ रहे हैं
हमारे ही दिल से मज़े उन के पूछो
वो धोके जो दानिस्ता हम खा रहे हैं
जफ़ा करने वालों को क्या हो गया है
वफ़ा कर के भी हम तो शर्मा रहे हैं
वो आलम है अब यारो अग़्यार कैसे
हमीं अपने दुश्मन हुए जा रहे हैं
मिज़ाज-ए-गिरामी की हो ख़ैर या-रब
कई दिन से अक्सर वो याद आ रहे हैं |
us-kii-nazron-men-intikhaab-huaa-jigar-moradabadi-ghazals |
उस की नज़रों में इंतिख़ाब हुआ
दिल अजब हुस्न से ख़राब हुआ
इश्क़ का सेहर कामयाब हुआ
मैं तिरा तू मिरा जवाब हुआ
हर नफ़स मौज-ए-इज़्तिराब हुआ
ज़िंदगी क्या हुई अज़ाब हुआ
जज़्बा-ए-शौक़ कामयाब हुआ
आज मुझ से उन्हें हिजाब हुआ
मैं बनूँ किस लिए न मस्त-ए-शराब
क्यूँ मुजस्सम कोई शबाब हुआ
निगह-ए-नाज़ ले ख़बर वर्ना
दर्द महबूब-ए-इज़्तिराब हुआ
मेरी बर्बादियाँ दुरुस्त मगर
तू बता क्या तुझे सवाब हुआ
ऐन क़ुर्बत भी ऐन फ़ुर्क़त भी
हाए वो क़तरा जो हबाब हुआ
मस्तियाँ हर तरफ़ हैं आवारा
कौन ग़ारत-गर-ए-शराब हुआ
दिल को छूना न ऐ नसीम-ए-करम
अब ये दिल रू-कश-ए-हबाब हुआ
इश्क़-ए-बे-इम्तियाज़ के हाथों
हुस्न ख़ुद भी शिकस्त-याब हुआ
जब वो आए तो पेश-तर सब से
मेरी आँखों को इज़्न-ए-ख़्वाब हुआ
दिल की हर चीज़ जगमगा उट्ठी
आज शायद वो बे-नक़ाब हुआ
दौर-ए-हंगामा-ए-नशात न पूछ
अब वो सब कुछ ख़याल ओ ख़्वाब हुआ
तू ने जिस अश्क पर नज़र डाली
जोश खा कर वही शराब हुआ
सितम-ए-ख़ास-ए-यार की है क़सम
करम-ए-यार बे-हिसाब हुआ |
laakhon-men-intikhaab-ke-qaabil-banaa-diyaa-jigar-moradabadi-ghazals |
लाखों में इंतिख़ाब के क़ाबिल बना दिया
जिस दिल को तुम ने देख लिया दिल बना दिया
हर-चंद कर दिया मुझे बर्बाद इश्क़ ने
लेकिन उन्हें तो शेफ़्ता-ए-दिल बना दिया
पहले कहाँ ये नाज़ थे ये इश्वा ओ अदा
दिल को दुआएँ दो तुम्हें क़ातिल बना दिया |
ai-husn-e-yaar-sharm-ye-kyaa-inqalaab-hai-jigar-moradabadi-ghazals |
ऐ हुस्न-ए-यार शर्म ये क्या इंक़लाब है
तुझ से ज़ियादा दर्द तिरा कामयाब है
आशिक़ की बे-दिली का तग़ाफ़ुल नहीं जवाब
उस का बस एक जोश-ए-मोहब्बत जवाब है
तेरी इनायतें कि नहीं नज़्र-ए-जाँ क़ुबूल
तेरी नवाज़िशें कि ज़माना ख़राब है
ऐ हुस्न अपनी हौसला-अफ़ज़ाइयाँ तो देख
माना कि चश्म-ए-शौक़ बहुत बे-हिजाब है
मैं इश्क़-ए-बे-नियाज़ हूँ तुम हुस्न-ए-बे-पनाह
मेरा जवाब है न तुम्हारा जवाब है
मय-ख़ाना है उसी का ये दुनिया उसी की है
जिस तिश्ना-लब के हाथ में जाम-ए-शराब है
उस से दिल-ए-तबाह की रूदाद क्या कहूँ
जो ये न सुन सके कि ज़माना ख़राब है
ऐ मोहतसिब न फेंक मिरे मोहतसिब न फेंक
ज़ालिम शराब है अरे ज़ालिम शराब है
अपने हुदूद से न बढ़े कोई इश्क़ में
जो ज़र्रा जिस जगह है वहीं आफ़्ताब है
वो लाख सामने हों मगर इस का क्या इलाज
दिल मानता नहीं कि नज़र कामयाब है
मेरी निगाह-ए-शौक़ भी कुछ कम नहीं मगर
फिर भी तिरा शबाब तिरा ही शबाब है
मानूस-ए-ए'तिबार-ए-करम क्यूँ किया मुझे
अब हर ख़ता-ए-शौक़ इसी का जवाब है
मैं उस का आईना हूँ वो है मेरा आईना
मेरी नज़र से उस की नज़र कामयाब है
तन्हाई-ए-फ़िराक़ के क़ुर्बान जाइए
मैं हूँ ख़याल-ए-यार है चश्म-ए-पुर-आब है
सरमाया-ए-फ़िराक़ 'जिगर' आह कुछ न पूछ
अब जान है सो अपने लिए ख़ुद अज़ाब है |
sabhii-andaaz-e-husn-pyaare-hain-jigar-moradabadi-ghazals |
सभी अंदाज़-ए-हुस्न प्यारे हैं
हम मगर सादगी के मारे हैं
उस की रातों का इंतिक़ाम न पूछ
जिस ने हँस हँस के दिन गुज़ारे हैं
ऐ सहारों की ज़िंदगी वालो
कितने इंसान बे-सहारे हैं
लाला-ओ-गुल से तुझ को क्या निस्बत
ना-मुकम्मल से इस्तिआ'रे हैं
हम तो अब डूब कर ही उभरेंगे
वो रहें शाद जो किनारे हैं
शब-ए-फ़ुर्क़त भी जगमगा उट्ठी
अश्क-ए-ग़म हैं कि माह-पारे हैं
आतिश-ए-इश्क़ वो जहन्नम है
जिस में फ़िरदौस के नज़ारे हैं
वो हमीं हैं कि जिन के हाथों ने
गेसू-ए-ज़िंदगी सँवारे हैं
हुस्न की बे-नियाज़ियों पे न जा
बे-इशारे भी कुछ इशारे हैं |
dil-gayaa-raunaq-e-hayaat-gaii-jigar-moradabadi-ghazals |
दिल गया रौनक़-ए-हयात गई
ग़म गया सारी काएनात गई
दिल धड़कते ही फिर गई वो नज़र
लब तक आई न थी कि बात गई
दिन का क्या ज़िक्र तीरा-बख़्तों में
एक रात आई एक रात गई
तेरी बातों से आज तो वाइ'ज़
वो जो थी ख़्वाहिश-ए-नजात गई
उन के बहलाए भी न बहला दिल
राएगाँ सई-ए-इल्तिफ़ात गई
मर्ग-ए-आशिक़ तो कुछ नहीं लेकिन
इक मसीहा-नफ़स की बात गई
अब जुनूँ आप है गरेबाँ-गीर
अब वो रस्म-ए-तकल्लुफ़ात गई
हम ने भी वज़-ए-ग़म बदल डाली
जब से वो तर्ज़-ए-इल्तिफ़ात गई
तर्क-ए-उल्फ़त बहुत बजा नासेह
लेकिन उस तक अगर ये बात गई
हाँ मज़े लूट ले जवानी के
फिर न आएगी ये जो रात गई
हाँ ये सरशारियाँ जवानी की
आँख झपकी ही थी कि रात गई
जल्वा-ए-ज़ात ऐ मआ'ज़-अल्लाह
ताब-ए-आईना-ए-सिफ़ात गई
नहीं मिलता मिज़ाज-ए-दिल हम से
ग़ालिबन दूर तक ये बात गई
क़ैद-ए-हस्ती से कब नजात 'जिगर'
मौत आई अगर हयात गई |
tabiiat-in-dinon-begaana-e-gam-hotii-jaatii-hai-jigar-moradabadi-ghazals |
तबीअत इन दिनों बेगाना-ए-ग़म होती जाती है
मिरे हिस्से की गोया हर ख़ुशी कम होती जाती है
सहर होने को है बेदार शबनम होती जाती है
ख़ुशी मंजुमला-ओ-अस्बाब-ए-मातम होती जाती है
क़यामत क्या ये ऐ हुस्न-ए-दो-आलम होती जाती है
कि महफ़िल तो वही है दिल-कशी कम होती जाती है
वही मय-ख़ाना-ओ-सहबा वही साग़र वही शीशा
मगर आवाज़-ए-नोशा-नोश मद्धम होती जाती है
वही हैं शाहिद-ओ-साक़ी मगर दिल बुझता जाता है
वही है शम्अ' लेकिन रौशनी कम होती जाती है
वही शोरिश है लेकिन जैसे मौज-ए-तह-नशीं कोई
वही दिल है मगर आवाज़ मद्धम होती जाती है
वही है ज़िंदगी लेकिन 'जिगर' ये हाल है अपना
कि जैसे ज़िंदगी से ज़िंदगी कम होती जाती है |
fikr-e-manzil-hai-na-hosh-e-jaada-e-manzil-mujhe-jigar-moradabadi-ghazals |
फ़िक्र-ए-मंज़िल है न होश-ए-जादा-ए-मंज़िल मुझे
जा रहा हूँ जिस तरफ़ ले जा रहा है दिल मुझे
अब ज़बाँ भी दे अदा-ए-शुक्र के क़ाबिल मुझे
दर्द बख़्शा है अगर तू ने बजाए-दिल मुझे
यूँ तड़प कर दिल ने तड़पाया सर-ए-महफ़िल मुझे
उस को क़ातिल कहने वाले कह उठे क़ातिल मुझे
अब किधर जाऊँ बता ऐ जज़्बा-ए-कामिल मुझे
हर तरफ़ से आज आती है सदा-ए-दिल मुझे
रोक सकती हो तो बढ़ कर रोक ले मंज़िल मुझे
हर तरफ़ से आज आती है सदा-ए-दिल मुझे
जान दी कि हश्र तक मैं हूँ मिरी तन्हाइयाँ
हाँ मुबारक फ़ुर्सत-ए-नज़्ज़ारा-ए-क़ातिल मुझे
हर इशारे पर है फिर भी गर्दन-ए-तस्लीम ख़म
जानता हूँ साफ़ धोके दे रहा है दिल मुझे
जा भी ऐ नासेह कहाँ का सूद और कैसा ज़ियाँ
इश्क़ ने समझा दिया है इश्क़ का हासिल मुझे
मैं अज़ल से सुब्ह-ए-महशर तक फ़रोज़ाँ ही रहा
हुस्न समझा था चराग़-ए-कुश्ता-ए-महफ़िल मुझे
ख़ून-ए-दिल रग रग में जम कर रह गया इस वहम से
बढ़ के सीने से न लिपटा ले मिरा क़ातिल मुझे
कैसा क़तरा कैसा दरिया किस का तूफ़ाँ किस की मौज
तू जो चाहे तो डुबो दे ख़ुश्की-ए-साहिल मुझे
फूँक दे ऐ ग़ैरत-ए-सोज़-ए-मोहब्बत फूँक दे
अब समझती हैं वो नज़रें रहम के क़ाबिल मुझे
तोड़ कर बैठा हूँ राह-ए-शौक़ में पा-ए-तलब
देखना है जज़्बा-ए-बे-ताबी-ए-मंज़िल मुझे
ऐ हुजूम-ए-ना-उमीदी शाद-बाश-ओ-ज़िंदा-बाश
तू ने सब से कर दिया बेगाना-ओ-ग़ाफ़िल मुझे
दर्द-ए-महरूमी सही एहसास-ए-नाकामी सही
उस ने समझा तो बहर-सूरत किसी क़ाबिल मुझे
ये भी क्या मंज़र है बढ़ते हैं न रुकते हैं क़दम
तक रहा हूँ दूर से मंज़िल को मैं मंज़िल मुझे |
tujhii-se-ibtidaa-hai-tuu-hii-ik-din-intihaa-hogaa-jigar-moradabadi-ghazals |
तुझी से इब्तिदा है तू ही इक दिन इंतिहा होगा
सदा-ए-साज़ होगी और न साज़-ए-बे-सदा होगा
हमें मालूम है हम से सुनो महशर में क्या होगा
सब उस को देखते होंगे वो हम को देखता होगा
सर-ए-महशर हम ऐसे आसियों का और क्या होगा
दर-ए-जन्नत न वा होगा दर-ए-रहमत तो वा होगा
जहन्नम हो कि जन्नत जो भी होगा फ़ैसला होगा
ये क्या कम है हमारा और उन का सामना होगा
अज़ल हो या अबद दोनों असीर-ए-ज़ुल्फ़-ए-हज़रत हैं
जिधर नज़रें उठाओगे यही इक सिलसिला होगा
ये निस्बत इश्क़ की बे-रंग लाए रह नहीं सकती
जो महबूब-ए-ख़ुदा का है वो महबूब-ए-ख़ुदा होगा
इसी उम्मीद पर हम तालिबान-ए-दर्द जीते हैं
ख़ोशा दर्द दे कि तेरा और दर्द-ए-ला-दवा होगा
निगाह-ए-क़हर पर भी जान-ओ-दिल सब खोए बैठा है
निगाह-ए-मेहर आशिक़ पर अगर होगी तो क्या होगा
सियाना भेज देगा हम को महशर से जहन्नम में
मगर जो दिल पे गुज़रेगी वो दिल ही जानता होगा
समझता क्या है तू दीवानगान-ए-इश्क़ को ज़ाहिद
ये हो जाएँगे जिस जानिब उसी जानिब ख़ुदा होगा
'जिगर' का हाथ होगा हश्र में और दामन-ए-हज़रत
शिकायत हो कि शिकवा जो भी होगा बरमला होगा |
yaadash-ba-khair-jab-vo-tasavvur-men-aa-gayaa-jigar-moradabadi-ghazals |
यादश-ब-ख़ैर जब वो तसव्वुर में आ गया
शे'र ओ शबाब ओ हुस्न का दरिया बहा गया
जब इश्क़ अपने मरकज़-ए-असली पे आ गया
ख़ुद बन गया हसीन दो आलम पे छा गया
जो दिल का राज़ था उसे कुछ दिल ही पा गया
वो कर सके बयाँ न हमीं से कहा गया
नासेह फ़साना अपना हँसी में उड़ा गया
ख़ुश-फ़िक्र था कि साफ़ ये पहलू बचा गया
अपना ज़माना आप बनाते हैं अहल-ए-दिल
हम वो नहीं कि जिन को ज़माना बना गया
दिल बन गया निगाह निगह बन गई ज़बाँ
आज इक सुकूत-ए-शौक़ क़यामत ही ढा गया
मेरा कमाल-ए-शेर बस इतना है ऐ 'जिगर'
वो मुझ पे छा गए मैं ज़माने पे छा गया |
ye-hai-mai-kada-yahaan-rind-hain-yahaan-sab-kaa-saaqii-imaam-hai-jigar-moradabadi-ghazals |
ये है मय-कदा यहाँ रिंद हैं यहाँ सब का साक़ी इमाम है
ये हरम नहीं है ऐ शैख़ जी यहाँ पारसाई हराम है
जो ज़रा सी पी के बहक गया उसे मय-कदे से निकाल दो
यहाँ तंग-नज़र का गुज़र नहीं यहाँ अहल-ए-ज़र्फ़ का काम है
कोई मस्त है कोई तिश्ना-लब तो किसी के हाथ में जाम है
मगर इस पे कोई करे भी क्या ये तो मय-कदे का निज़ाम है
ये जनाब-ए-शैख़ का फ़ल्सफ़ा है अजीब सारे जहान से
जो वहाँ पियो तो हलाल है जो यहाँ पियो तो हराम है
इसी काएनात में ऐ 'जिगर' कोई इंक़लाब उठेगा फिर
कि बुलंद हो के भी आदमी अभी ख़्वाहिशों का ग़ुलाम है |
aayaa-na-raas-naala-e-dil-kaa-asar-mujhe-jigar-moradabadi-ghazals |
आया न रास नाला-ए-दिल का असर मुझे
अब तुम मिले तो कुछ नहीं अपनी ख़बर मुझे
दिल ले के मुझ से देते हो दाग़-ए-जिगर मुझे
ये बात भूलने की नहीं उम्र भर मुझे
हर-सू दिखाई देते हैं वो जल्वा-गर मुझे
क्या क्या फ़रेब देती है मेरी नज़र मुझे
मिलती नहीं है लज़्ज़त-ए-दर्द-ए-जिगर मुझे
भूली हुई न हो निगह-ए-फ़ित्नागर मुझे
डाला है बे-ख़ुदी ने अजब राह पर मुझे
आँखें हैं और कुछ नहीं आता नज़र मुझे
करना है आज हज़रत-ए-नासेह से सामना
मिल जाए दो घड़ी को तुम्हारी नज़र मुझे
मस्ताना कर रहा हूँ रह-ए-आशिक़ी को तय
ले जाए जज़्ब-ए-शौक़ मिरा अब जिधर मुझे
डरता हूँ जल्वा-ए-रुख़-ए-जानाँ को देख कर
अपना बना न ले कहीं मेरी नज़र मुझे
यकसाँ है हुस्न-ओ-इश्क़ की सर-मस्तियों का रंग
उन की ख़बर उन्हें है न मेरी ख़बर मुझे
मरना है उन के पाँव पे रख कर सर-ए-नियाज़
करना है आज क़िस्सा-ए-ग़म मुख़्तसर मुझे
सीने से दिल अज़ीज़ है दिल से हो तुम अज़ीज़
सब से मगर अज़ीज़ है तेरी नज़र मुझे
मैं दूर हूँ तो रू-ए-सुख़न मुझ से किस लिए
तुम पास हो तो क्यूँ नहीं आते नज़र मुझे
क्या जानिए क़फ़स में रहे क्या मोआ'मला
अब तक तो हैं अज़ीज़ मिरे बाल-ओ-पर मुझे |
dil-men-kisii-ke-raah-kiye-jaa-rahaa-huun-main-jigar-moradabadi-ghazals |
दिल में किसी के राह किए जा रहा हूँ मैं
कितना हसीं गुनाह किए जा रहा हूँ मैं
दुनिया-ए-दिल तबाह किए जा रहा हूँ मैं
सर्फ़-ए-निगाह-ओ-आह किए जा रहा हूँ मैं
फ़र्द-ए-अमल सियाह किए जा रहा हूँ मैं
रहमत को बे-पनाह किए जा रहा हूँ मैं
ऐसी भी इक निगाह किए जा रहा हूँ मैं
ज़र्रों को मेहर-ओ-माह किए जा रहा हूँ मैं
मुझ से लगे हैं इश्क़ की अज़्मत को चार चाँद
ख़ुद हुस्न को गवाह किए जा रहा हूँ मैं
दफ़्तर है एक मानी-ए-बे-लफ़्ज़-ओ-सौत का
सादा सी जो निगाह किए जा रहा हूँ मैं
आगे क़दम बढ़ाएँ जिन्हें सूझता नहीं
रौशन चराग़-ए-राह किए जा रहा हूँ मैं
मासूमी-ए-जमाल को भी जिन पे रश्क है
ऐसे भी कुछ गुनाह किए जा रहा हूँ मैं
तन्क़ीद-ए-हुस्न मस्लहत-ए-ख़ास-ए-इश्क़ है
ये जुर्म गाह गाह किए जा रहा हूँ मैं
उठती नहीं है आँख मगर उस के रू-ब-रू
नादीदा इक निगाह किए जा रहा हूँ मैं
गुलशन-परस्त हूँ मुझे गुल ही नहीं अज़ीज़
काँटों से भी निबाह किए जा रहा हूँ मैं
यूँ ज़िंदगी गुज़ार रहा हूँ तिरे बग़ैर
जैसे कोई गुनाह किए जा रहा हूँ मैं
मुझ से अदा हुआ है 'जिगर' जुस्तुजू का हक़
हर ज़र्रे को गवाह किए जा रहा हूँ मैं |
aankhon-kaa-thaa-qusuur-na-dil-kaa-qusuur-thaa-jigar-moradabadi-ghazals |
आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था
तारीक मिस्ल-ए-आह जो आँखों का नूर था
क्या सुब्ह ही से शाम-ए-बला का ज़ुहूर था
वो थे न मुझ से दूर न मैं उन से दूर था
आता न था नज़र तो नज़र का क़ुसूर था
हर वक़्त इक ख़ुमार था हर दम सुरूर था
बोतल बग़ल में थी कि दिल-ए-ना-सुबूर था
कोई तो दर्दमंद-ए-दिल-ए-ना-सुबूर था
माना कि तुम न थे कोई तुम सा ज़रूर था
लगते ही ठेस टूट गया साज़-ए-आरज़ू
मिलते ही आँख शीशा-ए-दिल चूर चूर था
ऐसा कहाँ बहार में रंगीनियों का जोश
शामिल किसी का ख़ून-ए-तमन्ना ज़रूर था
साक़ी की चश्म-ए-मस्त का क्या कीजिए बयान
इतना सुरूर था कि मुझे भी सुरूर था
पलटी जो रास्ते ही से ऐ आह-ए-ना-मुराद
ये तो बता कि बाब-ए-असर कितनी दूर था
जिस दिल को तुम ने लुत्फ़ से अपना बना लिया
उस दिल में इक छुपा हुआ नश्तर ज़रूर था
उस चश्म-ए-मय-फ़रोश से कोई न बच सका
सब को ब-क़दर-ए-हौसला-ए-दिल सुरूर था
देखा था कल 'जिगर' को सर-ए-राह-ए-मय-कदा
इस दर्जा पी गया था कि नश्शे में चूर था |
shab-e-firaaq-hai-aur-niind-aaii-jaatii-hai-jigar-moradabadi-ghazals |
शब-ए-फ़िराक़ है और नींद आई जाती है
कुछ इस में उन की तवज्जोह भी पाई जाती है
ये उम्र-ए-इश्क़ यूँही क्या गँवाई जाती है
हयात ज़िंदा हक़ीक़त बनाई जाती है
बना बना के जो दुनिया मिटाई जाती है
ज़रूर कोई कमी है कि पाई जाती है
हमीं पे इश्क़ की तोहमत लगाई जाती है
मगर ये शर्म जो चेहरे पे छाई जाती है
ख़ुदा करे कि हक़ीक़त में ज़िंदगी बन जाए
वो ज़िंदगी जो ज़बाँ तक ही पाई जाती है
गुनाहगार के दिल से न बच के चल ज़ाहिद
यहीं कहीं तिरी जन्नत भी पाई जाती है
न सोज़-ए-इश्क़ न बर्क़-ए-जमाल पर इल्ज़ाम
दिलों में आग ख़ुशी से लगाई जाती है
कुछ ऐसे भी तो हैं रिंदान-ए-पाक-बाज़ 'जिगर'
कि जिन को बे-मय-ओ-साग़र पिलाई जाती है |
nazar-milaa-ke-mire-paas-aa-ke-luut-liyaa-jigar-moradabadi-ghazals |
नज़र मिला के मिरे पास आ के लूट लिया
नज़र हटी थी कि फिर मुस्कुरा के लूट लिया
शिकस्त-ए-हुस्न का जल्वा दिखा के लूट लिया
निगाह नीची किए सर झुका के लूट लिया
दुहाई है मिरे अल्लाह की दुहाई है
किसी ने मुझ से भी मुझ को छुपा के लूट लिया
सलाम उस पे कि जिस ने उठा के पर्दा-ए-दिल
मुझी में रह के मुझी में समा के लूट लिया
उन्हीं के दिल से कोई उस की अज़्मतें पूछे
वो एक दिल जिसे सब कुछ लुटा के लूट लिया
यहाँ तो ख़ुद तिरी हस्ती है इश्क़ को दरकार
वो और होंगे जिन्हें मुस्कुरा के लूट लिया
ख़ुशा वो जान जिसे दी गई अमानत-ए-इश्क़
रहे वो दिल जिसे अपना बना के लूट लिया
निगाह डाल दी जिस पर हसीन आँखों ने
उसे भी हुस्न-ए-मुजस्सम बना के लूट लिया
बड़े वो आए दिल ओ जाँ के लूटने वाले
नज़र से छेड़ दिया गुदगुदा के लूट लिया
रहा ख़राब-ए-मोहब्बत ही वो जिसे तू ने
ख़ुद अपना दर्द-ए-मोहब्बत दिखा के लूट लिया
कोई ये लूट तो देखे कि उस ने जब चाहा
तमाम हस्ती-ए-दिल को जगा के लूट लिया
करिश्मा-साज़ी-ए-हुस्न-ए-अज़ल अरे तौबा
मिरा ही आईना मुझ को दिखा के लूट लिया
न लुटते हम मगर उन मस्त अँखड़ियों ने 'जिगर'
नज़र बचाते हुए डबडबा के लूट लिया |
kaam-aakhir-jazba-e-be-ikhtiyaar-aa-hii-gayaa-jigar-moradabadi-ghazals |
काम आख़िर जज़्बा-ए-बे-इख़्तियार आ ही गया
दिल कुछ इस सूरत से तड़पा उन को प्यार आ ही गया
जब निगाहें उठ गईं अल्लाह-री मेराज-शौक़
देखता क्या हूँ वो जान-ए-इंतिज़ार आ ही गया
हाए ये हुस्न-ए-तसव्वुर का फ़रेब-ए-रंग-ओ-बू
मैं ये समझा जैसे वो जान-ए-बहार आ ही गया
हाँ सज़ा दे ऐ ख़ुदा-ए-इश्क़ ऐ तौफ़ीक़-ए-ग़म
फिर ज़बान-ए-बे-अदब पर ज़िक्र यार आ ही गया
इस तरह ख़ुश हूँ किसी के वादा-ए-फ़र्दा पे मैं
दर-हक़ीक़त जैसे मुझ को ए'तिबार आ ही गया
हाए काफ़िर-दिल की ये काफ़िर जुनूँ-अंगेज़ियाँ
तुम को प्यार आए न आए मुझ को प्यार आ ही गया
दर्द ने करवट ही बदली थी कि दिल की आड़ से
दफ़अ'तन पर्दा उठा और पर्दा-दार आ ही गया
दिल ने इक नाला किया आज इस तरह दीवाना-वार
बाल बिखराए कोई मस्ताना-वार आ ही गया
जान ही दे दी 'जिगर' ने आज पा-ए-यार पर
उम्र भर की बे-क़रारी को क़रार आ ही गया |
ishq-ko-be-naqaab-honaa-thaa-jigar-moradabadi-ghazals |
इश्क़ को बे-नक़ाब होना था
आप अपना जवाब होना था
मस्त-ए-जाम-ए-शराब होना था
बे-ख़ुद-ए-इज़्तिराब होना था
तेरी आँखों का कुछ क़ुसूर नहीं
हाँ मुझी को ख़राब होना था
आओ मिल जाओ मुस्कुरा के गले
हो चुका जो इताब होना था
कूचा-ए-इश्क़ में निकल आया
जिस को ख़ाना-ख़राब होना था
मस्त-ए-जाम-ए-शराब ख़ाक होते
ग़र्क़-ए-जाम-ए-शराब होना था
दिल कि जिस पर हैं नक़्श-ए-रंगा-रंग
उस को सादा किताब होना था
हम ने नाकामियों को ढूँड लिया
आख़िरश कामयाब होना था
हाए वो लम्हा-ए-सुकूँ कि जिसे
महशर-ए-इज़्तिराब होना था
निगह-ए-यार ख़ुद तड़प उठती
शर्त-ए-अव्वल ख़राब होना था
क्यूँ न होता सितम भी बे-पायाँ
करम-ए-बे-हिसाब होना था
क्यूँ नज़र हैरतों में डूब गई
मौज-ए-सद-इज़्तिराब होना था
हो चुका रोज़-ए-अव्वलीं ही 'जिगर'
जिस को जितना ख़राब होना था |
kasrat-men-bhii-vahdat-kaa-tamaashaa-nazar-aayaa-jigar-moradabadi-ghazals |
कसरत में भी वहदत का तमाशा नज़र आया
जिस रंग में देखा तुझे यकता नज़र आया
जब उस रुख़-ए-पुर-नूर का जल्वा नज़र आया
काबा नज़र आया न कलीसा नज़र आया
ये हुस्न ये शोख़ी ये करिश्मा ये अदाएँ
दुनिया नज़र आई मुझे तो क्या नज़र आया
इक सरख़ुशी-ए-इश्क़ है इक बे-ख़ुदी-ए-शौक़
आँखों को ख़ुदा जाने मिरी क्या नज़र आया
जब देख न सकते थे तो दरिया भी था क़तरा
जब आँख खुली क़तरा भी दरिया नज़र आया
क़ुर्बान तिरी शान-ए-इनायत के दिल ओ जाँ
इस कम-निगही पर मुझे क्या क्या नज़र आया
हर रंग तिरे रंग में डूबा हुआ निकला
हर नक़्श तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा नज़र आया
आँखों ने दिखा दी जो तिरे ग़म की हक़ीक़त
आलम मुझे सारा तह-ओ-बाला नज़र आया
हर जल्वे को देखा तिरे जल्वों से मुनव्वर
हर बज़्म में तू अंजुमन-आरा नज़र आया |
ye-misraa-kaash-naqsh-e-har-dar-o-diivaar-ho-jaae-jigar-moradabadi-ghazals |
ये मिस्रा काश नक़्श-ए-हर-दर-ओ-दीवार हो जाए
जिसे जीना हो मरने के लिए तय्यार हो जाए
वही मय-ख़्वार है जो इस तरह मय-ख़्वार हो जाए
कि शीशा तोड़ दे और बे-पिए सरशार हो जाए
दिल-ए-इंसाँ अगर शाइस्ता-ए-असरार हो जाए
लब-ए-ख़ामोश-फ़ितरत ही लब-ए-गुफ़्तार हो जाए
हर इक बे-कार सी हस्ती ब-रू-ए-कार हो जाए
जुनूँ की रूह-ए-ख़्वाबीदा अगर बेदार हो जाए
सुना है हश्र में हर आँख उसे बे-पर्दा देखेगी
मुझे डर है न तौहीन-ए-जमाल-ए-यार हो जाए
हरीम-ए-नाज़ में उस की रसाई हो तो क्यूँकर हो
कि जो आसूदा ज़ेर-ए-साया-ए-दीवार हो जाए
मआ'ज़-अल्लाह उस की वारदात-ए-ग़म मआ'ज़-अल्लाह
चमन जिस का वतन हो और चमन-बे-ज़ार हो जाए
यही है ज़िंदगी तो ज़िंदगी से ख़ुद-कुशी अच्छी
कि इंसाँ आलम-ए-इंसानियत पर बार हो जाए
इक ऐसी शान पैदा कर कि बातिल थरथरा उट्ठे
नज़र तलवार बन जाए नफ़स झंकार हो जाए
ये रोज़ ओ शब ये सुब्ह ओ शाम ये बस्ती ये वीराना
सभी बेदार हैं इंसाँ अगर बेदार हो जाए |
duniyaa-ke-sitam-yaad-na-apnii-hii-vafaa-yaad-jigar-moradabadi-ghazals |
दुनिया के सितम याद न अपनी ही वफ़ा याद
अब मुझ को नहीं कुछ भी मोहब्बत के सिवा याद
मैं शिकवा ब-लब था मुझे ये भी न रहा याद
शायद कि मिरे भूलने वाले ने किया याद
छेड़ा था जिसे पहले-पहल तेरी नज़र ने
अब तक है वो इक नग़्मा-ए-बे-साज़-ओ-सदा याद
जब कोई हसीं होता है सरगर्म-ए-नवाज़िश
उस वक़्त वो कुछ और भी आते हैं सिवा याद
क्या जानिए क्या हो गया अरबाब-ए-जुनूँ को
मरने की अदा याद न जीने की अदा याद
मुद्दत हुई इक हादसा-ए-इश्क़ को लेकिन
अब तक है तिरे दिल के धड़कने की सदा याद
हाँ हाँ तुझे क्या काम मिरी शिद्दत-ए-ग़म से
हाँ हाँ नहीं मुझ को तिरे दामन की हवा याद
मैं तर्क-ए-रह-ओ-रस्म-ए-जुनूँ कर ही चुका था
क्यूँ आ गई ऐसे में तिरी लग़्ज़िश-ए-पा याद
क्या लुत्फ़ कि मैं अपना पता आप बताऊँ
कीजे कोई भूली हुई ख़ास अपनी अदा याद |
kuchh-is-adaa-se-aaj-vo-pahluu-nashiin-rahe-jigar-moradabadi-ghazals |
कुछ इस अदा से आज वो पहलू-नशीं रहे
जब तक हमारे पास रहे हम नहीं रहे
ईमान-ओ-कुफ़्र और न दुनिया-ओ-दीं रहे
ऐ इश्क़-ए-शाद-बाश कि तन्हा हमीं रहे
आलम जब एक हाल पे क़ाएम नहीं रहे
क्या ख़ाक ए'तिबार-ए-निगाह-ए-यक़ीं रहे
मेरी ज़बाँ पे शिकवा-ए-दर्द-आफ़रीं रहे
शायद मिरे हवास ठिकाने नहीं रहे
जब तक इलाही जिस्म में जान-ए-हज़ीं रहे
नज़रें मिरी जवान रहें दिल हसीं रहे
या-रब किसी के राज़-ए-मोहब्बत की ख़ैर हो
दस्त-ए-जुनूँ रहे न रहे आस्तीं रहे
ता-चंद जोश-ए-इश्क़ में दिल की हिफ़ाज़तें
मेरी बला से अब वो जुनूनी कहीं रहे
जा और कोई ज़ब्त की दुनिया तलाश कर
ऐ इश्क़ हम तो अब तिरे क़ाबिल नहीं रहे
मुझ को नहीं क़ुबूल दो-आलम की वुसअतें
क़िस्मत में कू-ए-यार की दो-गज़ ज़मीं रहे
ऐ इश्क़-ए-नाला-कश तिरी ग़ैरत को क्या हुआ
है है अरक़ अरक़ वो तन-ए-नाज़नीं रहे
दर्द-ओ-ग़म-ए-फ़िराक के ये सख़्त मरहले
हैराँ हूँ मैं कि फिर भी तुम इतने हसीं रहे
अल्लाह-रे चश्म-ए-यार की मोजिज़-बयानियाँ
हर इक को है गुमाँ कि मुख़ातिब हमीं रहे
ज़ालिम उठा तू पर्दा-ए-वहम-ओ-गुमान-ओ-फ़िक्र
क्या सामने वो मरहला-हाए-यक़ीं रहे
ज़ात-ओ-सिफ़ात-ए-हुस्न का आलम नज़र में है
महदूद-ए-सज्दा क्या मिरा ज़ौक़-ए-जबीं रहे
किस दर्द से किसी ने कहा आज बज़्म में
अच्छा ये है वो नंग-ए-मोहब्बत यहीं रहे
सर-दादगान-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत की क्या कमी
क़ातिल की तेग़ तेज़ ख़ुदा की ज़मीं रहे
इस इश्क़ की तलाफ़ी-ए-माफ़ात देखना
रोने की हसरतें हैं जब आँसू नहीं रहे |
ik-lafz-e-mohabbat-kaa-adnaa-ye-fasaanaa-hai-jigar-moradabadi-ghazals |
इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है
ये किस का तसव्वुर है ये किस का फ़साना है
जो अश्क है आँखों में तस्बीह का दाना है
दिल संग-ए-मलामत का हर-चंद निशाना है
दिल फिर भी मिरा दिल है दिल ही तो ज़माना है
हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है
रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है
वो और वफ़ा-दुश्मन मानेंगे न माना है
सब दिल की शरारत है आँखों का बहाना है
शाइ'र हूँ मैं शाइ'र हूँ मेरा ही ज़माना है
फ़ितरत मिरा आईना क़ुदरत मिरा शाना है
जो उन पे गुज़रती है किस ने उसे जाना है
अपनी ही मुसीबत है अपना ही फ़साना है
क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों की ठोकर में ज़माना है
आग़ाज़-ए-मोहब्बत है आना है न जाना है
अश्कों की हुकूमत है आहों का ज़माना है
आँखों में नमी सी है चुप चुप से वो बैठे हैं
नाज़ुक सी निगाहों में नाज़ुक सा फ़साना है
हम दर्द-ब-दिल नालाँ वो दस्त-ब-दिल हैराँ
ऐ इश्क़ तो क्या ज़ालिम तेरा ही ज़माना है
या वो थे ख़फ़ा हम से या हम हैं ख़फ़ा उन से
कल उन का ज़माना था आज अपना ज़माना है
ऐ इश्क़-ए-जुनूँ-पेशा हाँ इश्क़-ए-जुनूँ-पेशा
आज एक सितमगर को हँस हँस के रुलाना है
थोड़ी सी इजाज़त भी ऐ बज़्म-गह-ए-हस्ती
आ निकले हैं दम-भर को रोना है रुलाना है
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
ख़ुद हुस्न-ओ-शबाब उन का क्या कम है रक़ीब अपना
जब देखिए अब वो हैं आईना है शाना है
तस्वीर के दो रुख़ हैं जाँ और ग़म-ए-जानाँ
इक नक़्श छुपाना है इक नक़्श दिखाना है
ये हुस्न-ओ-जमाल उन का ये इश्क़-ओ-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है मरने का ज़माना है
मुझ को इसी धुन में है हर लहज़ा बसर करना
अब आए वो अब आए लाज़िम उन्हें आना है
ख़ुद्दारी-ओ-महरूमी महरूमी-ओ-ख़ुद्दारी
अब दिल को ख़ुदा रक्खे अब दिल का ज़माना है
अश्कों के तबस्सुम में आहों के तरन्नुम में
मा'सूम मोहब्बत का मा'सूम फ़साना है
आँसू तो बहुत से हैं आँखों में 'जिगर' लेकिन
बंध जाए सो मोती है रह जाए सो दाना है |
baraabar-se-bach-kar-guzar-jaane-vaale-jigar-moradabadi-ghazals |
बराबर से बच कर गुज़र जाने वाले
ये नाले नहीं बे-असर जाने वाले
नहीं जानते कुछ कि जाना कहाँ है
चले जा रहे हैं मगर जाने वाले
मिरे दिल की बेताबियाँ भी लिए जा
दबे पाँव मुँह फेर कर जाने वाले
तिरे इक इशारे पे साकित खड़े हैं
नहीं कह के सब से गुज़र जाने वाले
मोहब्बत में हम तो जिए हैं जिएँगे
वो होंगे कोई और मर जाने वाले |
be-kaif-dil-hai-aur-jiye-jaa-rahaa-huun-main-jigar-moradabadi-ghazals |
बे-कैफ़ दिल है और जिए जा रहा हूँ मैं
ख़ाली है शीशा और पिए जा रहा हूँ मैं
पैहम जो आह आह किए जा रहा हूँ मैं
दौलत है ग़म ज़कात दिए जा रहा हूँ मैं
मजबूरी-ए-कमाल-ए-मोहब्बत तो देखना
जीना नहीं क़ुबूल जिए जा रहा हूँ मैं
वो दिल कहाँ है अब कि जिसे प्यार कीजिए
मजबूरियाँ हैं साथ दिए जा रहा हूँ मैं
रुख़्सत हुई शबाब के हमराह ज़िंदगी
कहने की बात है कि जिए जा रहा हूँ मैं
पहले शराब ज़ीस्त थी अब ज़ीस्त है शराब
कोई पिला रहा है पिए जा रहा हूँ मैं |
ishq-men-laa-javaab-hain-ham-log-jigar-moradabadi-ghazals |
इश्क़ में ला-जवाब हैं हम लोग
माहताब आफ़्ताब हैं हम लोग
गरचे अहल-ए-शराब हैं हम लोग
ये न समझो ख़राब हैं हम लोग
शाम से आ गए जो पीने पर
सुब्ह तक आफ़्ताब हैं हम लोग
हम को दावा-ए-इश्क़-बाज़ी है
मुस्तहिक़्क़-ए-अज़ाब हैं हम लोग
नाज़ करती है ख़ाना-वीरानी
ऐसे ख़ाना-ख़राब हैं हम लोग
हम नहीं जानते ख़िज़ाँ क्या है
कुश्तगान-ए-शबाब हैं हम लोग
तू हमारा जवाब है तन्हा
और तेरा जवाब हैं हम लोग
तू है दरिया-ए-हुस्न-ओ-महबूबी
शक्ल-ए-मौज-ओ-हबाब हैं हम लोग
गो सरापा हिजाब हैं फिर भी
तेरे रुख़ की नक़ाब हैं हम लोग
ख़ूब हम जानते हैं अपनी क़द्र
तेरे ना-कामयाब हैं हम लोग
हम से ग़फ़लत न हो तो फिर क्या हो
रह-रव-ए-मुल्क-ए-ख़्वाब हैं हम लोग
जानता भी है उस को तू वाइ'ज़
जिस के मस्त-ओ-ख़राब हैं हम लोग
हम पे नाज़िल हुआ सहीफ़ा-ए-इश्क़
साहिबान-ए-किताब हैं हम लोग
हर हक़ीक़त से जो गुज़र जाएँ
वो सदाक़त-मआब हैं हम लोग
जब मिली आँख होश खो बैठे
कितने हाज़िर-जवाब हैं हम लोग
हम से पूछो 'जिगर' की सर-मस्ती
महरम-ए-आँ-जनाब हैं हम लोग |
shaaer-e-fitrat-huun-jab-bhii-fikr-farmaataa-huun-main-jigar-moradabadi-ghazals |
शाएर-ए-फ़ितरत हूँ जब भी फ़िक्र फ़रमाता हूँ मैं
रूह बन कर ज़र्रे ज़र्रे में समा जाता हूँ मैं
आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त घबराता हूँ मैं
जैसे हर शय में किसी शय की कमी पाता हूँ मैं
जिस क़दर अफ़्साना-ए-हस्ती को दोहराता हूँ मैं
और भी बे-गाना-ए-हस्ती हुआ जाता हूँ मैं
जब मकान-ओ-ला-मकाँ सब से गुज़र जाता हूँ मैं
अल्लाह अल्लाह तुझ को ख़ुद अपनी जगह पाता हूँ मैं
तेरी सूरत का जो आईना उसे पाता हूँ मैं
अपने दिल पर आप क्या क्या नाज़ फ़रमाता हूँ मैं
यक-ब-यक घबरा के जितनी दूर हट आता हूँ मैं
और भी उस शोख़ को नज़दीक-तर पाता हूँ मैं
मेरी हस्ती शौक़-ए-पैहम मेरी फ़ितरत इज़्तिराब
कोई मंज़िल हो मगर गुज़रा चला जाता हूँ मैं
हाए-री मजबूरियाँ तर्क-ए-मोहब्बत के लिए
मुझ को समझाते हैं वो और उन को समझाता हूँ मैं
मेरी हिम्मत देखना मेरी तबीअत देखना
जो सुलझ जाती है गुत्थी फिर से उलझाता हूँ मैं
हुस्न को क्या दुश्मनी है इश्क़ को क्या बैर है
अपने ही क़दमों की ख़ुद ही ठोकरें खाता हूँ मैं
तेरी महफ़िल तेरे जल्वे फिर तक़ाज़ा क्या ज़रूर
ले उठा जाता हूँ ज़ालिम ले चला जाता हूँ मैं
ता-कुजा ये पर्दा-दारी-हा-ए-इश्क़-ओ-लाफ़-ए-हुस्न
हाँ सँभल जाएँ दो-आलम होश में आता हूँ मैं
मेरी ख़ातिर अब वो तकलीफ़-ए-तजल्ली क्यूँ करें
अपनी गर्द-ए-शौक़ में ख़ुद ही छुपा जाता हूँ मैं
दिल मुजस्सम शेर-ओ-नग़्मा वो सरापा रंग-ओ-बू
क्या फ़ज़ाएँ हैं कि जिन में हल हुआ जाता हूँ मैं
ता-कुजा ज़ब्त-ए-मोहब्बत ता-कुजा दर्द-ए-फ़िराक़
रहम कर मुझ पर कि तेरा राज़ कहलाता हूँ मैं
वाह-रे शौक़-ए-शहादत कू-ए-क़ातिल की तरफ़
गुनगुनाता रक़्स करता झूमता जाता हूँ मैं
या वो सूरत ख़ुद जहान-ए-रंग-ओ-बू महकूम था
या ये आलम अपने साए से दबा जाता हूँ मैं
देखना इस इश्क़ की ये तुरफ़ा-कारी देखना
वो जफ़ा करते हैं मुझ पर और शरमाता हूँ मैं
एक दिल है और तूफ़ान-ए-हवादिस ऐ 'जिगर'
एक शीशा है कि हर पत्थर से टकराता हूँ मैं |
aankhon-men-bas-ke-dil-men-samaa-kar-chale-gae-jigar-moradabadi-ghazals |
आँखों में बस के दिल में समा कर चले गए
ख़्वाबीदा ज़िंदगी थी जगा कर चले गए
हुस्न-ए-अज़ल की शान दिखा कर चले गए
इक वाक़िआ' सा याद दिला कर चले गए
चेहरे तक आस्तीन वो ला कर चले गए
क्या राज़ था कि जिस को छुपा कर चले गए
रग रग में इस तरह वो समा कर चले गए
जैसे मुझी को मुझ से चुरा कर चले गए
मेरी हयात-ए-इश्क़ को दे कर जुनून-ए-शौक़
मुझ को तमाम होश बना कर चले गए
समझा के पस्तियाँ मिरे औज-ए-कमाल की
अपनी बुलंदियाँ वो दिखा कर चले गए
अपने फ़रोग़-ए-हुस्न की दिखला के वुसअ'तें
मेरे हुदूद-ए-शौक़ बढ़ा कर चले गए
हर शय को मेरी ख़ातिर-ए-नाशाद के लिए
आईना-ए-जमाल बना कर चले गए
आए थे दिल की प्यास बुझाने के वास्ते
इक आग सी वो और लगा कर चले गए
आए थे चश्म-ए-शौक़ की हसरत निकालने
सर-ता-क़दम निगाह बना कर चले गए
अब कारोबार-ए-इश्क़ से फ़ुर्सत मुझे कहाँ
कौनैन का वो दर्द बढ़ा कर चले गए
शुक्र-ए-करम के साथ ये शिकवा भी हो क़ुबूल
अपना सा क्यूँ न मुझ को बना कर चले गए
लब थरथरा के रह गए लेकिन वो ऐ 'जिगर'
जाते हुए निगाह मिला कर चले गए |
kabhii-shaakh-o-sabza-o-barg-par-kabhii-guncha-o-gul-o-khaar-par-jigar-moradabadi-ghazals |
कभी शाख़ ओ सब्ज़ा ओ बर्ग पर कभी ग़ुंचा ओ गुल ओ ख़ार पर
मैं चमन में चाहे जहाँ रहूँ मिरा हक़ है फ़स्ल-ए-बहार पर
मुझे दें न ग़ैज़ में धमकियाँ गिरें लाख बार ये बिजलियाँ
मिरी सल्तनत ये ही आशियाँ मिरी मिलकियत ये ही चार पर
जिन्हें कहिए इश्क़ की वुसअ'तें जो हैं ख़ास हुस्न की अज़्मतें
ये उसी के क़ल्ब से पूछिए जिसे फ़ख़्र हो ग़म-ए-यार पर
मिरे अश्क-ए-ख़ूँ की बहार है कि मुरक़्क़ा-ए-ग़म-ए-यार है
मिरी शाइ'री भी निसार है मिरी चश्म-ए-सेहर-निगार पर
अजब इंक़िलाब-ए-ज़माना है मिरा मुख़्तसर सा फ़साना है
यही अब जो बार है दोश पर यही सर था ज़ानू-ए-यार पर
ये कमाल-ए-इश्क़ की साज़िशें ये जमाल-ए-हुस्न की नाज़िशें
ये इनायतें ये नवाज़िशें मिरी एक मुश्त-ए-ग़ुबार पर
मिरी सम्त से उसे ऐ सबा ये पयाम-ए-आख़िर-ए-ग़म सुना
अभी देखना हो तो देख जा कि ख़िज़ाँ है अपनी बहार पर
ये फ़रेब-ए-जल्वा है सर-ब-सर मुझे डर ये है दिल-ए-बे-ख़बर
कहीं जम न जाए तिरी नज़र इन्हीं चंद नक़्श ओ निगार पर
मैं रहीन-ए-दर्द सही मगर मुझे और चाहिए क्या 'जिगर'
ग़म-ए-यार है मिरा शेफ़्ता मैं फ़रेफ़्ता ग़म-ए-यार पर |
koii-ye-kah-de-gulshan-gulshan-jigar-moradabadi-ghazals |
कोई ये कह दे गुलशन गुलशन
लाख बलाएँ एक नशेमन
क़ातिल रहबर क़ातिल रहज़न
दिल सा दोस्त न दिल सा दुश्मन
फूल खिले हैं गुलशन गुलशन
लेकिन अपना अपना दामन
इश्क़ है प्यारे खेल नहीं है
इश्क़ है कार-ए-शीशा-ओ-आहन
ख़ैर मिज़ाज-ए-हुस्न की या-रब
तेज़ बहुत है दिल की धड़कन
आ कि न जाने तुझ बिन कब से
रूह है लाशा जिस्म है मदफ़न
आज न जाने राज़ ये क्या है
हिज्र की रात और इतनी रौशन
उम्रें बीतीं सदियाँ गुज़रीं
है वही अब तक इश्क़ का बचपन
तुझ सा हसीं और ख़ून-ए-मोहब्बत
वहम है शायद सुर्ख़ी-ए-दामन
बर्क़-ए-हवादिस अल्लाह अल्लाह
झूम रही है शाख़-ए-नशेमन
तू ने सुलझ कर गेसू-ए-जानाँ
और बढ़ा दी शौक़ की उलझन
रहमत होगी तालिब-ए-इस्याँ
रश्क करेगी पाकीए-दामन
दिल कि मुजस्सम आईना-सामाँ
और वो ज़ालिम आईना-दुश्मन
बैठे हम हर बज़्म में लेकिन
झाड़ के उट्ठे अपना दामन
हस्ती-ए-शाएर अल्लाह अल्लाह
हुस्न की मंज़िल इश्क़ का मस्कन
रंगीं फ़ितरत सादा तबीअत
फ़र्श-नशीं और अर्श-नशेमन
काम अधूरा और आज़ादी
नाम बड़े और थोड़े दर्शन
शम्अ है लेकिन धुंदली धुंदली
साया है लेकिन रौशन रौशन
काँटों का भी हक़ है कुछ आख़िर
कौन छुड़ाए अपना दामन
चलती फिरती छाँव है प्यारे
किस का सहरा कैसा गुलशन |
jo-tuufaanon-men-palte-jaa-rahe-hain-jigar-moradabadi-ghazals |
जो तूफ़ानों में पलते जा रहे हैं
वही दुनिया बदलते जा रहे हैं
निखरता आ रहा है रंग-ए-गुलशन
ख़स ओ ख़ाशाक जलते जा रहे हैं
वहीं मैं ख़ाक उड़ती देखता हूँ
जहाँ चश्मे उबलते जा रहे हैं
चराग़-ए-दैर-ओ-काबा अल्लाह अल्लाह
हवा की ज़िद पे जलते जा रहे हैं
शबाब ओ हुस्न में बहस आ पड़ी है
नए पहलू निकलते जा रहे हैं |
aaj-kyaa-haal-hai-yaarab-sar-e-mahfil-meraa-jigar-moradabadi-ghazals |
आज क्या हाल है यारब सर-ए-महफ़िल मेरा
कि निकाले लिए जाता है कोई दिल मेरा
सोज़-ए-ग़म देख न बरबाद हो हासिल मेरा
दिल की तस्वीर है हर आईना-ए-दिल मेरा
सुब्ह तक हिज्र में क्या जानिए क्या होता है
शाम ही से मिरे क़ाबू में नहीं दिल मेरा
मिल गई इश्क़ में ईज़ा-तलबी से राहत
ग़म है अब जान मिरी दर्द है अब दिल मेरा
पाया जाता है तिरी शोख़ी-ए-रफ़्तार का रंग
काश पहलू में धड़कता ही रहे दिल मेरा
हाए उस मर्द की क़िस्मत जो हुआ दिल का शरीक
हाए उस दिल का मुक़द्दर जो बना दिल मेरा
कुछ खटकता तो है पहलू में मिरे रह रह कर
अब ख़ुदा जाने तिरी याद है या दिल मेरा |
sab-pe-tuu-mehrbaan-hai-pyaare-jigar-moradabadi-ghazals |
सब पे तू मेहरबान है प्यारे
कुछ हमारा भी ध्यान है प्यारे
आ कि तुझ बिन बहुत दिनों से ये दिल
एक सूना मकान है प्यारे
तू जहाँ नाज़ से क़दम रख दे
वो ज़मीन आसमान है प्यारे
मुख़्तसर है ये शौक़ की रूदाद
हर नफ़स दास्तान है प्यारे
अपने जी में ज़रा तो कर इंसाफ़
कब से ना-मेहरबान है प्यारे
सब्र टूटे हुए दिलों का न ले
तू यूँही धान पान है प्यारे
हम से जो हो सका सो कर गुज़रे
अब तिरा इम्तिहान है प्यारे
मुझ में तुझ में तो कोई फ़र्क़ नहीं
इश्क़ क्यूँ दरमियान है प्यारे
क्या कहे हाल-ए-दिल ग़रीब 'जिगर'
टूटी फूटी ज़बान है प्यारे |
vo-adaa-e-dilbarii-ho-ki-navaa-e-aashiqaana-jigar-moradabadi-ghazals |
वो अदा-ए-दिलबरी हो कि नवा-ए-आशिक़ाना
जो दिलों को फ़त्ह कर ले वही फ़ातेह-ए-ज़माना
ये तिरा जमाल-ए-कामिल ये शबाब का ज़माना
दिल-ए-दुश्मनाँ सलामत दिल-ए-दोस्ताँ निशाना
कभी हुस्न की तबीअत न बदल सका ज़माना
वही नाज़-ए-बे-नियाज़ी वही शान-ए-ख़ुसरवाना
मैं हूँ उस मक़ाम पर अब कि फ़िराक़ ओ वस्ल कैसे
मिरा इश्क़ भी कहानी तिरा हुस्न भी फ़साना
मिरी ज़िंदगी तो गुज़री तिरे हिज्र के सहारे
मिरी मौत को भी प्यारे कोई चाहिए बहाना
तिरे इश्क़ की करामत ये अगर नहीं तो क्या है
कभी बे-अदब न गुज़रा मिरे पास से ज़माना
तिरी दूरी ओ हुज़ूरी का ये है अजीब आलम
अभी ज़िंदगी हक़ीक़त अभी ज़िंदगी फ़साना
मिरे हम-सफ़ीर बुलबुल मिरा तेरा साथ ही क्या
मैं ज़मीर-ए-दश्त-ओ-दरिया तू असीर-ए-आशियाना
मैं वो साफ़ ही न कह दूँ जो है फ़र्क़ मुझ में तुझ में
तिरा दर्द दर्द-ए-तन्हा मिरा ग़म ग़म-ए-ज़माना
तिरे दिल के टूटने पर है किसी को नाज़ क्या क्या
तुझे ऐ 'जिगर' मुबारक ये शिकस्त-ए-फ़ातेहाना |
use-haal-o-qaal-se-vaasta-na-garaz-maqaam-o-qayaam-se-jigar-moradabadi-ghazals |
उसे हाल-ओ-क़ाल से वास्ता न ग़रज़ मक़ाम-ओ-क़याम से
जिसे कोई निस्बत-ए-ख़ास हो तिरे हुस्न-ए-बर्क़-ख़िराम से
मुझे दे रहे हैं तसल्लियाँ वो हर एक ताज़ा पयाम से
कभी आ के मंज़र-ए-आम पर कभी हट के मंज़र-ए-आम से
क्यूँ किया रहा जो मुक़ाबला ख़तरात-ए-गाम-ब-गाम से
सर-ए-बाम-ए-इश्क़-ए-तमाम तक रह-ए-शौक़-ए-नीम-तमाम से
न ग़रज़ किसी से न वास्ता मुझे काम अपने ही काम से
तिरे ज़िक्र से तिरी फ़िक्र से तिरी याद से तिरे नाम से
मिरे साक़िया मिरे साक़िया तुझे मरहबा तुझे मरहबा
तू पिलाए जा तू पिलाए जा इसी चश्म-ए-जाम-ब-जाम से
तिरी सुब्ह-ए-ऐश है क्या बला तुझे ऐ फ़लक जो हो हौसला
कभी कर ले आ के मुक़ाबला ग़म-ए-हिज्र-ए-यार की शाम से
मुझे यूँ न ख़ाक में तू मिला मैं अगरचे हूँ तिरा नक़्श-ए-पा
तिरे जल्वे की है बक़ा मिरे शौक़-ए-नाम-ब-नाम से
तिरी चश्म-ए-मस्त को क्या कहूँ कि नज़र नज़र है फ़ुसूँ फ़ुसूँ
ये तमाम होश ये सब जुनूँ इसी एक गर्दिश-ए-जाम से
ये किताब-ए-दिल की हैं आयतें मैं बताऊँ क्या जो हैं निस्बतें
मिरे सज्दा-हा-ए-दवाम को तिरे नक़्श-हा-ए-ख़िराम से
मुझे चाहिए वही साक़िया जो बरस चले जो छलक चले
तिरे हुस्न-ए-शीशा-ब-दस्त से तिरी चश्म-ए-बादा-ब-जाम से
जो उठा है दर्द उठा करे कोई ख़ाक उस से गिला करे
जिसे ज़िद हो हुस्न के ज़िक्र से जिसे चिढ़ हो इश्क़ के नाम से
वहीं चश्म-ए-हूर फड़क गई अभी पी न थी कि बहक गई
कभी यक-ब-यक जो छलक गई किसी रिंद-ए-मस्त के जाम से
तू हज़ार उज़्र करे मगर हमें रश्क है और ही कुछ 'जिगर'
तिरी इज़्तिराब-ए-निगाह से तिरे एहतियात-ए-कलाम से |
daastaan-e-gam-e-dil-un-ko-sunaaii-na-gaii-jigar-moradabadi-ghazals |
दास्तान-ए-ग़म-ए-दिल उन को सुनाई न गई
बात बिगड़ी थी कुछ ऐसी कि बनाई न गई
सब को हम भूल गए जोश-ए-जुनूँ में लेकिन
इक तिरी याद थी ऐसी जो भुलाई न गई
इश्क़ पर कुछ न चला दीदा-ए-तर का क़ाबू
उस ने जो आग लगा दी वो बुझाई न गई
पड़ गया हुस्न-ए-रुख़-ए-यार का परतव जिस पर
ख़ाक में मिल के भी इस दिल की सफ़ाई न गई
क्या उठाएगी सबा ख़ाक मिरी उस दर से
ये क़यामत तो ख़ुद उन से भी उठाई न गई |
jehl-e-khirad-ne-din-ye-dikhaae-jigar-moradabadi-ghazals |
जेहल-ए-ख़िरद ने दिन ये दिखाए
घट गए इंसाँ बढ़ गए साए
हाए वो क्यूँकर दिल बहलाए
ग़म भी जिस को रास न आए
ज़िद पर इश्क़ अगर आ जाए
पानी छिड़के आग लगाए
दिल पे कुछ ऐसा वक़्त पड़ा है
भागे लेकिन राह न पाए
कैसा मजाज़ और कैसी हक़ीक़त
अपने ही जल्वे अपने ही साए
झूटी है हर एक मसर्रत
रूह अगर तस्कीन न पाए
कार-ए-ज़माना जितना जितना
बनता जाए बिगड़ता जाए
ज़ब्त-ए-मोहब्बत शर्त-ए-मोहब्बत
जी है कि ज़ालिम उमडा आए
हुस्न वही है हुस्न जो ज़ालिम
हाथ लगाए हाथ न आए
नग़्मा वही है नग़्मा कि जिस को
रूह सुने और रूह सुनाए
राह-ए-जुनूँ आसान हुई है
ज़ुल्फ़ ओ मिज़ा के साए साए |
kyaa-baraabar-kaa-mohabbat-men-asar-hotaa-hai-jigar-moradabadi-ghazals |
क्या बराबर का मोहब्बत में असर होता है
दिल इधर होता है ज़ालिम न उधर होता है
हम ने क्या कुछ न किया दीदा-ए-दिल की ख़ातिर
लोग कहते हैं दुआओं में असर होता है
दिल तो यूँ दिल से मिलाया कि न रक्खा मेरा
अब नज़र के लिए क्या हुक्म-ए-नज़र होता है
मैं गुनहगार-ए-जुनूँ मैं ने ये माना लेकिन
कुछ उधर से भी तक़ाज़ा-ए-नज़र होता है
कौन देखे उसे बेताब-ए-मोहब्बत ऐ दिल
तू वो नाले ही न कर जिन में असर होता है |
tire-jamaal-e-haqiiqat-kii-taab-hii-na-huii-jigar-moradabadi-ghazals |
तिरे जमाल-ए-हक़ीक़त की ताब ही न हुई
हज़ार बार निगह की मगर कभी न हुई
तिरी ख़ुशी से अगर ग़म में भी ख़ुशी न हुई
वो ज़िंदगी तो मोहब्बत की ज़िंदगी न हुई
कहाँ वो शोख़ मुलाक़ात ख़ुद से भी न हुई
बस एक बार हुई और फिर कभी न हुई
वो हम हैं अहल-ए-मोहब्बत कि जान से दिल से
बहुत बुख़ार उठे आँख शबनमी न हुई
ठहर ठहर दिल-ए-बेताब प्यार तो कर लूँ
अब उस के ब'अद मुलाक़ात फिर हुई न हुई
मिरे ख़याल से भी आह मुझ को बोद रहा
हज़ार तरह से चाहा बराबरी न हुई
हम अपनी रिंदी-ओ-ताअत पे ख़ाक नाज़ करें
क़ुबूल-ए-हज़रत-ए-सुल्ताँ हुई हुई न हुई
कोई बढ़े न बढ़े हम तो जान देते हैं
फिर ऐसी चश्म-ए-तवज्जोह हुई हुई न हुई
तमाम हर्फ़-ओ-हिकायत तमाम दीदा-ओ-दिल
इस एहतिमाम पे भी शरह-ए-आशिक़ी न हुई
फ़सुर्दा-ख़ातिरी-ए-इश्क़ ऐ मआज़-अल्लाह
ख़याल-ए-यार से भी कुछ शगुफ़्तगी न हुई
तिरी निगाह-ए-करम को भी आज़मा देखा
अज़िय्यतों में न होनी थी कुछ कमी न हुई
किसी की मस्त-निगाही ने हाथ थाम लिया
शरीक-ए-हाल जहाँ मेरी बे-ख़ुदी न हुई
सबा ये उन से हमारा पयाम कह देना
गए हो जब से यहाँ सुब्ह ओ शाम ही न हुई
वो कुछ सही न सही फिर भी ज़ाहिद-ए-नादाँ
बड़े-बड़ों से मोहब्बत में काफ़िरी न हुई
इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हम ने आह तो की उन से आह भी न हुई
ख़याल-ए-यार सलामत तुझे ख़ुदा रक्खे
तिरे बग़ैर कभी घर में रौशनी न हुई
गए थे हम भी 'जिगर' जल्वा-गाह-ए-जानाँ में
वो पूछते ही रहे हम से बात भी न हुई |
agar-na-zohra-jabiinon-ke-darmiyaan-guzre-jigar-moradabadi-ghazals |
अगर न ज़ोहरा-जबीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे ज़िंदगी कहाँ गुज़रे
जो तेरे आरिज़ ओ गेसू के दरमियाँ गुज़रे
कभी कभी वही लम्हे बला-ए-जाँ गुज़रे
मुझे ये वहम रहा मुद्दतों कि जुरअत-ए-शौक़
कहीं न ख़ातिर-ए-मासूम पर गिराँ गुज़रे
हर इक मक़ाम-ए-मोहब्बत बहुत ही दिलकश था
मगर हम अहल-ए-मोहब्बत कशाँ कशाँ गुज़रे
जुनूँ के सख़्त मराहिल भी तेरी याद के साथ
हसीं हसीं नज़र आए जवाँ जवाँ गुज़रे
मिरी नज़र से तिरी जुस्तुजू के सदक़े में
ये इक जहाँ ही नहीं सैंकड़ों जहाँ गुज़रे
हुजूम-ए-जल्वा में परवाज़-ए-शौक़ क्या कहना
कि जैसे रूह सितारों के दरमियाँ गुज़रे
ख़ता-मुआफ़ ज़माने से बद-गुमाँ हो कर
तिरी वफ़ा पे भी क्या क्या हमें गुमाँ गुज़रे
मुझे था शिकवा-ए-हिज्राँ कि ये हुआ महसूस
मिरे क़रीब से हो कर वो ना-गहाँ गुज़रे
रह-ए-वफ़ा में इक ऐसा मक़ाम भी आया
कि हम ख़ुद अपनी तरफ़ से भी बद-गुमाँ गुज़रे
ख़ुलूस जिस में हो शामिल वो दौर-ए-इश्क़-ओ-हवस
न राएगाँ कभी गुज़रा न राएगाँ गुज़रे
उसी को कहते हैं जन्नत उसी को दोज़ख़ भी
वो ज़िंदगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे
बहुत हसीन मनाज़िर भी हुस्न-ए-फ़ितरत के
न जाने आज तबीअत पे क्यूँ गिराँ गुज़रे
वो जिन के साए से भी बिजलियाँ लरज़ती थीं
मिरी नज़र से कुछ ऐसे भी आशियाँ गुज़रे
मिरा तो फ़र्ज़ चमन-बंदी-ए-जहाँ है फ़क़त
मिरी बला से बहार आए या ख़िज़ाँ गुज़रे
कहाँ का हुस्न कि ख़ुद इश्क़ को ख़बर न हुई
रह-ए-तलब में कुछ ऐसे भी इम्तिहाँ गुज़रे
भरी बहार में ताराजी-ए-चमन मत पूछ
ख़ुदा करे न फिर आँखों से वो समाँ गुज़रे
कोई न देख सका जिन को वो दिलों के सिवा
मुआमलात कुछ ऐसे भी दरमियाँ गुज़रे
कभी कभी तो इसी एक मुश्त-ए-ख़ाक के गिर्द
तवाफ़ करते हुए हफ़्त आसमाँ गुज़रे
बहुत हसीन सही सोहबतें गुलों की मगर
वो ज़िंदगी है जो काँटों के दरमियाँ गुज़रे
अभी से तुझ को बहुत नागवार हैं हमदम
वो हादसात जो अब तक रवाँ-दवाँ गुज़रे
जिन्हें कि दीदा-ए-शाइर ही देख सकता है
वो इंक़िलाब तिरे सामने कहाँ गुज़रे
बहुत अज़ीज़ है मुझ को उन्हें क्या याद 'जिगर'
वो हादसात-ए-मोहब्बत जो ना-गहाँ गुज़रे |
do-chaar-gaam-raah-ko-hamvaar-dekhnaa-nida-fazli-ghazals |
दो चार गाम राह को हमवार देखना
फिर हर क़दम पे इक नई दीवार देखना
आँखों की रौशनी से है हर संग आईना
हर आइने में ख़ुद को गुनहगार देखना
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिस को भी देखना हो कई बार देखना
मैदाँ की हार जीत तो क़िस्मत की बात है
टूटी है किस के हाथ में तलवार देखना
दरिया के इस किनारे सितारे भी फूल भी
दरिया चढ़ा हुआ हो तो उस पार देखना
अच्छी नहीं है शहर के रस्तों से दोस्ती
आँगन में फैल जाए न बाज़ार देखना |
be-naam-saa-ye-dard-thahar-kyuun-nahiin-jaataa-nida-fazli-ghazals |
बे-नाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुज़र क्यूँ नहीं जाता
सब कुछ तो है क्या ढूँढती रहती हैं निगाहें
क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यूँ नहीं जाता
वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहाँ में
जो दूर है वो दिल से उतर क्यूँ नहीं जाता
मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा
जाते हैं जिधर सब मैं उधर क्यूँ नहीं जाता
वो ख़्वाब जो बरसों से न चेहरा न बदन है
वो ख़्वाब हवाओं में बिखर क्यूँ नहीं जाता |
garaj-baras-pyaasii-dhartii-phir-paanii-de-maulaa-nida-fazli-ghazals |
गरज-बरस प्यासी धरती पर फिर पानी दे मौला
चिड़ियों को दाने बच्चों को गुड़-धानी दे मौला
दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहाँ होता है
सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला
फिर रौशन कर ज़हर का प्याला चमका नई सलीबें
झूटों की दुनिया में सच को ताबानी दे मौला
फिर मूरत से बाहर आ कर चारों ओर बिखर जा
फिर मंदिर को कोई 'मीरा' दीवानी दे मौला
तेरे होते कोई किस की जान का दुश्मन क्यूँ हो
जीने वालों को मरने की आसानी दे मौला |
mutthii-bhar-logon-ke-haathon-men-laakhon-kii-taqdiiren-hain-nida-fazli-ghazals |
मुट्ठी भर लोगों के हाथों में लाखों की तक़दीरें हैं
जुदा जुदा हैं धर्म इलाक़े एक सी लेकिन ज़ंजीरें हैं
आज और कल की बात नहीं है सदियों की तारीख़ यही है
हर आँगन में ख़्वाब हैं लेकिन चंद घरों में ताबीरें हैं
जब भी कोई तख़्त सजा है मेरा तेरा ख़ून बहा है
दरबारों की शान-ओ-शौकत मैदानों की शमशीरें हैं
हर जंगल की एक कहानी वो ही भेंट वही क़ुर्बानी
गूँगी बहरी सारी भेड़ें चरवाहों की जागीरें हैं |
kabhii-kabhii-yuun-bhii-ham-ne-apne-jii-ko-bahlaayaa-hai-nida-fazli-ghazals |
कभी कभी यूँ भी हम ने अपने जी को बहलाया है
जिन बातों को ख़ुद नहीं समझे औरों को समझाया है
हम से पूछो इज़्ज़त वालों की इज़्ज़त का हाल कभी
हम ने भी इक शहर में रह कर थोड़ा नाम कमाया है
उस को भूले बरसों गुज़रे लेकिन आज न जाने क्यूँ
आँगन में हँसते बच्चों को बे-कारन धमकाया है
उस बस्ती से छुट कर यूँ तो हर चेहरे को याद किया
जिस से थोड़ी सी अन-बन थी वो अक्सर याद आया है
कोई मिला तो हाथ मिलाया कहीं गए तो बातें कीं
घर से बाहर जब भी निकले दिन भर बोझ उठाया है |
achchhii-nahiin-ye-khaamushii-shikva-karo-gila-karo-nida-fazli-ghazals |
अच्छी नहीं ये ख़ामुशी शिकवा करो गिला करो
यूँ भी न कर सको तो फिर घर में ख़ुदा ख़ुदा करो
शोहरत भी उस के साथ है दौलत भी उस के हाथ है
ख़ुद से भी वो मिले कभी उस के लिए दुआ करो
देखो ये शहर है अजब दिल भी नहीं है कम ग़ज़ब
शाम को घर जो आऊँ मैं थोड़ा सा सज लिया करो
दिल में जिसे बसाओ तुम चाँद उसे बनाओ तुम
वो जो कहे पढ़ा करो जो न कहे सुना करो
मेरी नशिस्त पे भी कल आएगा कोई दूसरा
तुम भी बना के रास्ता मेरे लिए जगह करो |
yaqiin-chaand-pe-suuraj-men-e-tibaar-bhii-rakh-nida-fazli-ghazals |
यक़ीन चाँद पे सूरज में ए'तिबार भी रख
मगर निगाह में थोड़ा सा इंतिज़ार भी रख
ख़ुदा के हाथ में मत सौंप सारे कामों को
बदलते वक़्त पे कुछ अपना इख़्तियार भी रख
ये ही लहू है शहादत ये ही लहू पानी
ख़िज़ाँ नसीब सही ज़ेहन में बहार भी रख
घरों के ताक़ों में गुल-दस्ते यूँ नहीं सजते
जहाँ हैं फूल वहीं आस-पास ख़ार भी रख
पहाड़ गूँजें नदी गाए ये ज़रूरी है
सफ़र कहीं का हो दिल में किसी का प्यार भी रख |
jise-dekhte-hii-khumaarii-lage-nida-fazli-ghazals |
जिसे देखते ही ख़ुमारी लगे
उसे उम्र सारी हमारी लगे
उजाला सा है उस के चारों तरफ़
वो नाज़ुक बदन पाँव भारी लगे
वो ससुराल से आई है माइके
उसे जितना देखो वो प्यारी लगे
हसीन सूरतें और भी हैं मगर
वो सब सैकड़ों में हज़ारी लगे
चलो इस तरह से सजाएँ उसे
ये दुनिया हमारी तुम्हारी लगे
उसे देखना शेर-गोई का फ़न
उसे सोचना दीन-दारी लगे |
dekhaa-huaa-saa-kuchh-hai-to-sochaa-huaa-saa-kuchh-nida-fazli-ghazals |
देखा हुआ सा कुछ है तो सोचा हुआ सा कुछ
हर वक़्त मेरे साथ है उलझा हुआ सा कुछ
होता है यूँ भी रास्ता खुलता नहीं कहीं
जंगल सा फैल जाता है खोया हुआ सा कुछ
साहिल की गीली रेत पर बच्चों के खेल सा
हर लम्हा मुझ में बनता बिखरता हुआ सा कुछ
फ़ुर्सत ने आज घर को सजाया कुछ इस तरह
हर शय से मुस्कुराता है रोता हुआ सा कुछ
धुँदली सी एक याद किसी क़ब्र का दिया
और मेरे आस-पास चमकता हुआ सा कुछ |
nazdiikiyon-men-duur-kaa-manzar-talaash-kar-nida-fazli-ghazals |
नज़दीकियों में दूर का मंज़र तलाश कर
जो हाथ में नहीं है वो पत्थर तलाश कर
सूरज के इर्द-गिर्द भटकने से फ़ाएदा
दरिया हुआ है गुम तो समुंदर तलाश कर
तारीख़ में महल भी है हाकिम भी तख़्त भी
गुमनाम जो हुए हैं वो लश्कर तलाश कर
रहता नहीं है कुछ भी यहाँ एक सा सदा
दरवाज़ा घर का खोल के फिर घर तलाश कर
कोशिश भी कर उमीद भी रख रास्ता भी चुन
फिर इस के बा'द थोड़ा मुक़द्दर तलाश कर |
koshish-ke-baavajuud-ye-ilzaam-rah-gayaa-nida-fazli-ghazals |
कोशिश के बावजूद ये इल्ज़ाम रह गया
हर काम में हमेशा कोई काम रह गया
छोटी थी उम्र और फ़साना तवील था
आग़ाज़ ही लिखा गया अंजाम रह गया
उठ उठ के मस्जिदों से नमाज़ी चले गए
दहशत-गरों के हाथ में इस्लाम रह गया
उस का क़ुसूर ये था बहुत सोचता था वो
वो कामयाब हो के भी नाकाम रह गया
अब क्या बताएँ कौन था क्या था वो एक शख़्स
गिनती के चार हर्फ़ों का जो नाम रह गया |
jo-ho-ik-baar-vo-har-baar-ho-aisaa-nahiin-hotaa-nida-fazli-ghazals |
जो हो इक बार वो हर बार हो ऐसा नहीं होता
हमेशा एक ही से प्यार हो ऐसा नहीं होता
हर इक कश्ती का अपना तजरबा होता है दरिया में
सफ़र में रोज़ ही मंजधार हो ऐसा नहीं होता
कहानी में तो किरदारों को जो चाहे बना दीजे
हक़ीक़त भी कहानी-कार हो ऐसा नहीं होता
कहीं तो कोई होगा जिस को अपनी भी ज़रूरत हो
हर इक बाज़ी में दिल की हार हो ऐसा नहीं होता
सिखा देती हैं चलना ठोकरें भी राहगीरों को
कोई रस्ता सदा दुश्वार हो ऐसा नहीं होता |
kuchh-bhii-bachaa-na-kahne-ko-har-baat-ho-gaii-nida-fazli-ghazals |
कुछ भी बचा न कहने को हर बात हो गई
आओ कहीं शराब पिएँ रात हो गई
फिर यूँ हुआ कि वक़्त का पाँसा पलट गया
उम्मीद जीत की थी मगर मात हो गई
सूरज को चोंच में लिए मुर्ग़ा खड़ा रहा
खिड़की के पर्दे खींच दिए रात हो गई
वो आदमी था कितना भला कितना पुर-ख़ुलूस
उस से भी आज लीजे मुलाक़ात हो गई
रस्ते में वो मिला था मैं बच कर गुज़र गया
उस की फटी क़मीस मिरे साथ हो गई
नक़्शा उठा के कोई नया शहर ढूँढिए
इस शहर में तो सब से मुलाक़ात हो गई |
apnii-marzii-se-kahaan-apne-safar-ke-ham-hain-nida-fazli-ghazals |
अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं
पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं
वक़्त के साथ है मिटी का सफ़र सदियों से
किस को मालूम कहाँ के हैं किधर के हम हैं
चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते हैं किस राहगुज़र के हम हैं
हम वहाँ हैं जहाँ कुछ भी नहीं रस्ता न दयार
अपने ही खोए हुए शाम ओ सहर के हम हैं
गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम
हर क़लमकार की बे-नाम ख़बर के हम हैं |
hosh-vaalon-ko-khabar-kyaa-be-khudii-kyaa-chiiz-hai-nida-fazli-ghazals |
होश वालों को ख़बर क्या बे-ख़ुदी क्या चीज़ है
इश्क़ कीजे फिर समझिए ज़िंदगी क्या चीज़ है
उन से नज़रें क्या मिलीं रौशन फ़ज़ाएँ हो गईं
आज जाना प्यार की जादूगरी क्या चीज़ है
बिखरी ज़ुल्फ़ों ने सिखाई मौसमों को शाइ'री
झुकती आँखों ने बताया मय-कशी क्या चीज़ है
हम लबों से कह न पाए उन से हाल-ए-दिल कभी
और वो समझे नहीं ये ख़ामोशी क्या चीज़ है |
aaj-zaraa-fursat-paaii-thii-aaj-use-phir-yaad-kiyaa-nida-fazli-ghazals-3 |
आज ज़रा फ़ुर्सत पाई थी आज उसे फिर याद किया
बंद गली के आख़िरी घर को खोल के फिर आबाद किया
खोल के खिड़की चाँद हँसा फिर चाँद ने दोनों हाथों से
रंग उड़ाए फूल खिलाए चिड़ियों को आज़ाद किया
बड़े बड़े ग़म खड़े हुए थे रस्ता रोके राहों में
छोटी छोटी ख़ुशियों से ही हम ने दिल को शाद किया
बात बहुत मा'मूली सी थी उलझ गई तकरारों में
एक ज़रा सी ज़िद ने आख़िर दोनों को बरबाद किया
दानाओं की बात न मानी काम आई नादानी ही
सुना हवा को पढ़ा नदी को मौसम को उस्ताद किया |
raat-ke-baad-nae-din-kii-sahar-aaegii-nida-fazli-ghazals |
रात के बा'द नए दिन की सहर आएगी
दिन नहीं बदलेगा तारीख़ बदल जाएगी
हँसते हँसते कभी थक जाओ तो छुप के रो लो
ये हँसी भीग के कुछ और चमक जाएगी
जगमगाती हुई सड़कों पे अकेले न फिरो
शाम आएगी किसी मोड़ पे डस जाएगी
और कुछ देर यूँही जंग सियासत मज़हब
और थक जाओ अभी नींद कहाँ आएगी
मेरी ग़ुर्बत को शराफ़त का अभी नाम न दे
वक़्त बदला तो तिरी राय बदल जाएगी
वक़्त नदियों को उछाले कि उड़ाए पर्बत
उम्र का काम गुज़रना है गुज़र जाएगी |
main-apne-ikhtiyaar-men-huun-bhii-nahiin-bhii-huun-nida-fazli-ghazals |
मैं अपने इख़्तियार में हूँ भी नहीं भी हूँ
दुनिया के कारोबार में हूँ भी नहीं भी हूँ
तेरी ही जुस्तुजू में लगा है कभी कभी
मैं तेरे इंतिज़ार में हूँ भी नहीं भी हूँ
फ़िहरिस्त मरने वालों की क़ातिल के पास है
मैं अपने ही मज़ार में हूँ भी नहीं भी हूँ
औरों के साथ ऐसा कोई मसअला नहीं
इक मैं ही इस दयार में हूँ भी नहीं भी हूँ
मुझ से ही है हर एक सियासत का ए'तिबार
फिर भी किसी शुमार में हूँ भी नहीं भी हूँ |
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